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________________ ३१६ योगसार-प्राभृत २१ भेद हैं। इनमें जो मोह-राग-द्वेषरूप औदयिक भाव हैं, वे ही नवीन कर्मबंध में निमित्त होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र में - मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबंधहेतवः - ऐसा कहा है। इन मिथ्यात्वादि में मात्र मोहनीय कर्म निमित्त है। अन्य कर्म के निमित्त से होनेवाले जीव के औदयिक भावों का कर्मबंध में कुछ निमित्तपना नहीं है। इस विषय की विशेष जानकारी हेतु मोक्षमार्गप्रकाशक के दूसरे अधिकार के नवीन बंध विचार प्रकरण को जरूर देखें। पारिणामिक भाव मक्ति का कारण है: यह कथन भी सामान्य है। क्योंकि जीवत्व. भव्यत्व. अभव्यत्व - इन तीन पारिणामिक भावों में से मात्र जीवत्व-पारिणामिक भाव ही मुक्ति का कारण है। उसमें भी जो अनादि-अनंत परमपारिणामिक भाव है, वही मुक्ति का कारण है, अन्य व्यवहार जीवत्व कारण नहीं है। मुक्ति के कारण परमपारिणामिक भाव को ही ज्ञायक भगवान आत्मा, त्रिकाली शुद्ध निजात्मा, निजात्म तत्त्व, कारण परमात्मा आदि शब्दों से आगम में कहा गया है। इस परमपारिणामिक भाव के संबंध में आचार्य जयसेन के अनुसार समयसार गाथा ३४१ (आचार्य अमृतचंद्र के अनुसार गाथा ३२०) की जयसेनाचार्य कृत टीका में विशेष विस्तार के साथ स्पष्ट किया है; पाठक उसे जरूर-जरूर देखें। यह विषय अपने जीवन में धर्म प्रगट करने के लिये अलौकिक है। एकमात्र असाधारण उपाय है। जिनधर्म का मर्म समझने के लिये भी यह विषय अति महत्त्वपूर्ण है। पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित अध्यात्म रत्नत्रय कृति का अध्ययन भी उपयोगी सिद्ध होगा। आत्मा के अनुभव की प्रेरणा - विषयानुभवं बाह्य स्वात्मानुभवमान्तरम् । विज्ञाय प्रथमं हित्वा स्थेयमन्यत्र सर्वतः ।।५३१।। अन्वय : - विषयानुभवं बाह्यं (भवति)। स्व-आत्मानुभवं आन्तरं (भवति । एतत्) विज्ञाय प्रथमं (बाह्यं विषयानुभवं) हित्वा अन्यत्र (स्व-आत्मानुभवं आन्तरं) सर्वतः स्थेयम् । ___ सरलार्थ :- स्पर्श-रसादि पंचेंद्रिय विषयों का जो अनुभव है, वह बाह्य अर्थात् दुःखरूप तथा विनाशीक है और निज शुद्ध आत्मा का जो अनुभव है, वह अंतरंग अर्थात् वास्तविक, सुखरूप तथा अविनाशी/शाश्वत है। इस बात को अच्छी तरह से जानकर दुःखद बाह्य-विषयानुभव को छोड़कर निज शुद्धात्मानुभवरूप अंतरंग में पूर्णतः स्थिर/मग्न होना चाहिए। भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार पाठकों को निजात्मा के अनुभव में ही मग्न रहने का उपदेश दे रहे हैं, जो मनुष्य जीवन का वास्तविक कर्त्तव्य है। ज्ञान के दो भेद - ज्ञानं वैषयिकं पुंसः सर्वं पौद्गलिकं मतम् । विषयेभ्यः परावृत्तमात्मीयमपरं पुनः ।।५३२।। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/316]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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