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________________ चूलिका अधिकार ३१३ भी कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं होते । (यदि विषयों को जानने से ज्ञानी बन्ध को प्राप्त हो तो) तीन लोक को जाननेवाले केवली भगवान क्या बन्ध को प्राप्त नहीं होंगे? (अवश्य बन्धेगे, किन्तु वे तो नहीं बन्धते हैं, अतः ज्ञानी भी विषयों को जानते हुए बन्धते नहीं हैं - इसमें क्या आश्चर्य है ?)। भावार्थ :- श्लोक क्रमांक ५२१ में विषय-स्मृति से कर्मबंध होता है; इस विषय को सुनकर स्मृति/स्मरण भी ज्ञान का एक भेद है और वह ज्ञान बंध का कारण हो सकता है - ऐसा नहीं समझना चाहिए। यदि ज्ञान से कर्मबंध मानेंगे तो केवलज्ञानी को भी बंध मानना पड़ेगा, अतः इंद्रिय-विषयों को जानने मात्र से बंध नहीं होता है। __ कर्मबंध का कारण मात्र मोह परिणाम ही है, और दूसरा कोई नहीं । जहाँ विषयों में दृढ़स्मृति को बंध का कारण कहा है, उसमें मोह परिणाम मूलक ज्ञान ही समझना । अतः मोह परिणाम ही बंध का कारण है, ज्ञान नहीं; यह यथार्थ वस्तुस्वरूप है। मिथ्यात्व ही कर्मबंध में प्रमुख कारण है, विषय-ग्रहण नहीं - विमूढो नूनमक्षार्थमगृह्णानोऽपि बध्यते। एकाक्षाद्या निबध्यन्ते विषयाग्रहिणो न किम् ।।५२६।। अन्वय : - विमूढः (जीव:) नूनं अक्षार्थं अगृह्णानः अपि बध्यते; (यथा) एकाक्षाद्याः विषय-अग्रहिणः किं न निबध्यन्ते? (निबध्यन्ते एव)। सरलार्थ :- विमूढ़ अर्थात् मिथ्यादृष्टि महाअज्ञानी जीव निश्चय से इंद्रिय-विषयों को ग्रहण न करते हुए भी ज्ञानावरणादि कर्मबंध को प्राप्त होते हैं। क्या एकेंद्रियादि जीव रसादि चार विषयों को ग्रहण न करते हए भी ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के बंध को प्राप्त नहीं होते हैं? (अर्थात अवश्य प्राप्त होते हैं।) भावार्थ :- कर्मबंध होने में कारण तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं। इन कारणों की उपस्थिति हो तो कर्मबंध होने का नियम है । जो जीव स्पर्शादि विषयों को पूर्ण या अपूर्ण ग्रहण करेगा तदनुसार कर्मबंध का नियम नहीं है। यदि स्पर्शादि विषय-ग्रहण की अपेक्षा से कर्मबंध का नियम माना जाय तो एकेंद्रिय जीव तो मात्र एक स्पर्शरूप विषय को ग्रहण करता है, शेष रसनेंद्रियादि के अभाव से रसादि विषयों को जानता ही नहीं; तथापि एकेंद्रिय जीव को ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का बंध होता है। इसकारण इंद्रियों से विषय-ग्रहण के अनुसार कर्मबंध नहीं होता, कर्मबंध के कारण तो मिथ्यात्वादि परिणाम हैं। स्पर्शादि विषयों के अधिक ग्रहण से अधिक बंध माना जाय तो चक्रवर्ती को अधिक बंध होना अनिवार्य हो जायेगा । चक्रवर्ती के इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय स्पर्शन-रसना व घ्राणेन्द्रिय का नौ-नौ योजन, कर्णेन्द्रिय का बारह योजन और चक्षुरिन्द्रिय का ४७,२६३ योजन से कुछ अधिक है। इतनी अधिक विषय की शक्ति होने से चक्रवर्ती को अधिक बन्ध होना चाहिए; लेकिन ऐसा है नहीं। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/313]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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