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________________ चूलिका अधिकार बराबर सतत स्मरण करता रहता है, वह अज्ञानी सदा दुःखी एवं दीन रहता है और अपने इस जन्म को तथा अगले भवों को भी बिगाड़ता है। भावार्थ :- बाह्य त्याग से जीव का कल्याण नहीं होता, भेदज्ञानपूर्वक यथार्थ श्रद्धा से त्याग करना ही कार्यकारी है। अनादिकाल से अज्ञानी बाह्य त्याग करके अनंत बार द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी संसार का नेता ही बना रहा, लेकिन उसे सच्चा सुख प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए वस्तुस्वरूप का सच्चा ज्ञान-श्रद्धान करना आवश्यक है। यथार्थ श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक ही बाह्यत्याग मोक्षमार्ग में उपयोगी होता है। भोग के संदर्भ में अज्ञानी-ज्ञानी का स्वरूप - भोगं कश्चिदभुजानो भोगार्थं कुरुते क्रियाम् । भोगमन्यस्तु भुजानो भोगच्छेदाय शुद्धधीः ।।५२२।। अन्वय : - कश्चित् भोगं अभुजानः (अपि) भोगार्थं क्रियां कुरुते, अन्यः शुद्धधी: तु भोगं भुञ्जानः (अपि) भोगच्छेदाय (क्रियां कुरुते)। सरलार्थ :- कोई अज्ञानी पूर्वबद्ध पापोदय के कारण भोग्यवस्तु प्राप्त न होने से भोग को प्रत्यक्ष में न भोगता हुआ भी पंचेंद्रियों के भोग भोगने के लिये क्रिया अर्थात् प्रयास करता है। दूसरा कोई शुद्धबुद्धिधारक तत्त्वज्ञानी अपने पूर्वबद्ध पुण्योदय से प्राप्त पंचेन्द्रिय-भोगों को अनासक्त बुद्धि से भोगता हुआ भी संसार के छेद का प्रयत्न करता है। भावार्थ :- ग्रंथकार परिणामों की विचित्रता बताते हैं। भावना भवनाशिनी' यह विषय परम सत्य है। मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ के सातवें अधिकार में आस्रवतत्त्व के अन्यथारूप में एक वाक्य अति महत्त्वपर्ण आया है - "हिंसा में प्रमाद परिणति मल है और विषयसेवन में अभिलाषा मल है।" आगे निर्जरातत्त्व के अन्यथारूप में निरूपित यह वाक्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है – “इसलिए बाह्य प्रवृत्ति के अनुसार निर्जरा नहीं है, अंतरंग कषायशक्ति घटने से विशुद्धता होनेपर निर्जरा होती है।" पाठक मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ का सातवाँ अध्याय जरूर देखें। विरक्त त्यागी का स्वरूप - स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षोऽपि निरुद्धविषय-स्मृतिः। सर्वदा सुस्थितो जीवः परत्रेह च जायते ।।५२३।। अन्वय : - (य: जीवः) स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षः निरुद्धविषय-स्मृति: अपि (सः) जीवः इह च परत्र सर्वदा सुस्थित: जायते। सरलार्थ :- जो ज्ञानी जीव अपने स्पर्शनेंद्रियादि को उनके स्पर्शादि विषयों से (क्षेत्र की अपेक्षा से) अलग/भिन्न रखता है अर्थात प्रत्यक्ष में इंद्रियों से विषयों को भोगता नहीं है और स्पर्शादि विषयों का स्मरण भी नहीं करता अर्थात् पहले भोगे गये भोगों का कभी स्मरण नहीं करता एवं न उन्हें फिर से भोगने की इच्छा ही करता है - वह ज्ञानी जीव इस भव में तथा परभव में भी सदा सुखी रहता है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/311]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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