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________________ ३०८ योगसार-प्राभृत मोक्षमार्ग की साधना करके सिद्ध बननेवाले हैं। इस महान कार्य के लिये वस्तु-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना अत्यावश्यक है। ___ अज्ञानी जीव जिसका कर्ता नहीं है, उसका अपने को कर्ता मानकर मिथ्यात्व को पुष्ट करता है। यह मिथ्यात्व ही संसार का मूल है, उसका नाश करना हो तो वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करके अपने को मात्र अपने ज्ञानभाव का कर्ता समझना चाहिए। कर्म-अकर्म का जीव कर्ता नहीं है; इसलिए निराकर्ता बनकर अर्थात् उनका कर्तापन छोड़कर ज्ञाता बनकर मोक्षमार्गी हो जाना ही इस मनुष्य भव की सार्थकता है। अनासक्त ज्ञानी विषयभोगों से निर्बंध - विषयैर्विषयस्थोऽपि निरासङ्गो न लिप्यते । कर्दमस्थो विशुद्धात्मा स्फटिकः कर्दमैरिव ।।५१६।। अन्वय : - कर्दमस्थ: विशुद्धात्मा स्फटिकः कर्दमैः (न लिप्यते) इव निरासङ्गः विषयस्थ: अपि (विशुद्धात्मा) विषयैः न लिप्यते। सरलार्थ :- जिसप्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ विशुद्ध स्फटिकमणी कीचड़ से लिप्त नहीं होता अर्थात् अपने निर्मल स्वभाव को नहीं छोड़ता-निर्मल ही रहता है। उसीप्रकार जो ज्ञानी जीव निःसंग अर्थात् अनासक्त रहता है, वह ज्ञानी स्पर्शनादि पाँचों इंद्रियों के स्पर्शादि विषयों को भोगता हुआ भी विषयजन्य पाप से नहीं बंधता - निर्बंध ही रहता है। भावार्थ :- इस श्लोक में सम्यक्त्व का माहात्म्य बताया है। ज्ञानी जीव की श्रद्धा यथार्थ हो गयी है; इसलिए भूमिका के योग्य भोगों को अरुचि से भोगते हुए भी उसका संसार नहीं बढ़ता। ___ इसी आशय का भाव समयसार कलश १४९ में निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है - “क्योंकि ज्ञानी निजरस से ही सर्व रागरस के त्यागरूप स्वभाववाला है; इसलिए वह कर्मों के बीच पड़ा हुआ भी सर्व कर्मों से लिप्त नहीं होता।" ज्ञानी निर्बंध रहता है, यह जानकर कोई स्वच्छंद हो जाये तो उसका निषेध भी समयसार कलश १६६ में अति मार्मिक शब्दों में किया है। भेदज्ञान का माहात्म्य - देहचेतनयोर्भेदो दृश्यते येन तत्त्वतः। न सङ्गो जायते तस्य विषयेषु कदाचन ।।५१७।। अन्वय : - येन (जीवेन) तत्त्वत: देहचेतनयोः भेदः दृश्यते, तस्य विषयेषु कदाचन सङ्गः न जायते। सरलार्थ :- जिस जीव ने अनित्य एवं अचेतन देह और सुखस्वभावी एवं चेतन आत्मा में भेद तत्त्वतः अर्थात् वास्तविक रीति से देख/जान लिया है - अनुभव में लिया है, उस जीव का पंचेंद्रियों के स्पर्शादि विषयों में संग अर्थात् आसक्तभाव कभी भी नहीं होता – विरक्तभाव ही रहता है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/308]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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