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________________ चूलिका अधिकार २८९ सरलार्थ :- जिसप्रकार विपत्ति / आपत्ति जिसकी सखी अर्थात् सहेली है, वह लक्ष्मी अर्थात् धन-संपत्ति विद्वानों के लिये आनंददायक नहीं होती; उसीप्रकार कल्मष अर्थात् पाप ही जिसका साथी है वह भोग विद्वानों के लिये सुखकारी नहीं होता । भावार्थ :- इष्ट स्पर्शादि विषयों को भोगनेवाले मोही जीव के भाव को यहाँ पाप कहा है। धन और भोग ये सुखदाता हैं, ऐसी मिथ्या मान्यता ही मूल पाप है। उस पाप को मिटाने का प्रयास निजशुद्ध आत्मा के आश्रय से ही होता है । अतः पात्र जीव को येन-केन प्रकारेण पर में सुख की मिथ्या मान्यता मिटाना चाहिए और उसके लिये निज शुद्ध आत्मा के आश्रय का प्रयास करना आवश्यक है। सच्चा वैराग्य का स्वरूप - भोग-संसार - निर्वेदो जायते पारमार्थिकः । सम्यग्ज्ञान- प्रदीपेन तन्नैर्गुण्यावलोकने ।। ४८३ ।। अन्वय :- सम्यग्ज्ञान- प्रदीपेन तत्-नैर्गुण्यावलोकने ( कृते) भोग-संसार - निर्वेद: पारमार्थिकः जायते । सरलार्थ :- जब सम्यग्ज्ञानरूप दीपक से पंचेंद्रियों के रम्य भोग और आकर्षक लगनेवाले राग-द्वेषरूप संसारवर्धक परिणामों में निर्गुणता अर्थात् निरर्थकता / व्यर्थता भलीभाँति समझ में आती है, तब भोग और संसार से वास्तविक / सच्चा वैराग्य होता है । भावार्थ :- श्लोक में वैराग्य का निषेधमूलक कथन किया है; इसे विधिमूलक इसप्रकार समझ लेना चाहिए - जब जीव मात्र निज शुद्ध आत्मा में सुख एवं सार्थकता का अनुभव / प्रतीति होती है; तब स्वयमेव ही भोग और संसार की निरर्थकता ख्याल में आती है। वास्तविकरूप से देखा जाय तो अपनी आत्मा की सच्ची प्रतीति / श्रद्धा होने पर वैराग्य भाव भी स्वयं ही सच्चा हो जाता है, उसके लिये कुछ अलग पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं रहती । जैसे अंधेरे को दूर करने के लिये मात्र दीपक के प्रकाश की आवश्यकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है; वैसे ही सच्चे वैराग्य के लिये अर्थात् सम्यक्चारित्र के लिये श्रद्धा को यथार्थ बनाना है, अन्य कोई यथार्थ उपाय नहीं है । संक्षेप में कहना हो तो ग्रहणपूर्वक ही त्याग होता है, ग्रहण के बिना त्याग, त्याग ही नहीं है, वह व्यर्थ प्रयास है । जो मात्र त्याग-त्याग ही करते हैं और निज शुद्ध आत्मा का ग्रहण नहीं करते, वे उसके विचार तक भी नहीं पहुँच पाते। उन्हें धर्म तो प्रगट होता ही नहीं, सातिशय पुण्य के भागी भी नहीं बनते; विपरीत मान्यता के कारण मात्र तीव्र मिथ्यात्व का बंध करते हैं । परम भक्ति का स्वरूप - निर्वाणे परमा भक्तिः पश्यतस्तद्गुणं परम् । चित्र - दुःखमहाबीजे नष्टे सति विपर्यये । । ४८४ ।। [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/289 ]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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