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________________ चारित्र अधिकार २७३ जब यह निश्चय अर्थात् सच्चा धर्म व्यक्त रहता है, उस समय मुनिराज के जीवन में सहचररूप से २८ मूलगुणों के पालनरूप पुण्य परिणाम भी होता ही है, उसे यथार्थ धर्म के साथ-साथ होने से व्यवहारनय से मुक्ति का कारण कहा जाता है। वास्तविकरूप से तो यह शुभोपयोगरूप चारित्र कर्मबंध का ही कारण है। प्रवचनसार की छठी गाथा तथा उसकी टीका में यह विषय विशेष स्पष्ट हुआ है, अतः वह टीका अविकल रूप से दे रहे हैं - “दर्शन - ज्ञान प्रधान चारित्र से, यदि वह ( चारित्र) वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है; और उसे ही, यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभवक्लेशरूप बन्ध की प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फलवाला होने से वीतरागचारित्र ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है और अनिष्ट फलवाला होने से सराग चारित्र त्यागने योग्य (हेय) है । " व्यावहारिक चारित्र के दो भेद - यो व्यावहारिकः पन्थाः सभेद - द्वय - संगतः । अनुकूलो भवेदेको निर्वृतेः संसृतेः परः ।। ४५२ ।। अन्वय :- यः व्यावहारिकः पन्था: ( अस्ति; सः ) सभेद - द्वय - संगत: ( भवति ) । एक: निर्वृते: अनुकूलः भवेत् परः संसृते: (अनुकूलः भवेत् ) । सरलार्थ :- व्यावहारिकचारित्ररूप जो मार्ग अर्थात् उपाय है, उसके दो भेद हैं - एक निर्वाण / मुक्ति के लिये अनुकूल है और दूसरा संसार के लिए अनुकूल है। भावार्थ ::- इस श्लोक में व्यवहार चारित्र के भेद बताते हुए ग्रंथकार की विवक्षा जिनेंद्रकथित व्यवहार और सरागी देवों द्वारा कहा हुआ व्यवहार चारित्र का स्वरूप समझाने की है। सही देखा जाय तो वीतरागी सर्वज्ञ देवों से भिन्न जो कोई भी देव दुनियाँ में माने / जाने जाते हैं, वे सच्चे देव हो ही नहीं सकते । तथा उनसे कथित धर्म में न व्यवहार चारित्र है और न निश्चय चारित्र | दुनियाँ अर्थात् अनभ्यासी सामान्यजन जिस व्रत-नियम आदि को चारित्र कहते हैं, उसकी अपेक्षा लेकर सरागधर्म के धारक जीवों के चारित्र को भी ग्रंथकार ने व्यवहार चारित्र के नाम से कहा है। इनमें से जिनेन्द्रकथित व्यवहार चारित्र तो मुक्ति के लिए अनुकूल है और अन्य द्वारा कथित चारित्र संसार का ही कारण है । मोक्ष एवं संसार के लिये अनुकूल चारित्र - निर्वृतेरनुकूलोऽध्वा चारित्रं जिन-भाषितम् । संसृतेरनुकूलोऽध्वा चारित्रं पर - भाषितम् । । ४५३।। अन्वय :- जिन - भाषितं चारित्रं निर्वृते: अनुकूलः अध्वा ( वर्तते) । (च) पर - भाषितं चारित्रं संसृते: अनुकूल: अध्वा ( वर्तते ) । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/273]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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