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________________ योगसार प्राभृत २६४ व्याप्त जगत में एक शास्त्र ही अनंत जीवों को यथार्थ उपाय दिखानेवाले दीपक के समान प्रकाशक/ मार्गदर्शक है । भावार्थ :- वर्तमानकाल में इस क्षेत्र में साक्षात् सर्वज्ञ भगवान के दिव्यध्वनिरूप उपदेश का तो अभाव ही है, सच्चे गुरु भी दुर्लभ हैं। एक शास्त्र ही देव और गुरु का तथा अपने स्वरूप का परिचय देनेवाला है । तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए शास्त्र को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। अतः यहाँ ग्रंथकार ने शास्त्र की मुख्यता की है। शास्त्र की और विशेषता - मायामयौषधं शास्त्रं शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् । चक्षुः सर्वगतं शास्त्रं शास्त्रं सर्वार्थसाधकम् ।। ४२९।। अन्वय :- शास्त्रं मायामयौषधं, शास्त्रं पुण्यनिबन्धनं, शास्त्रं सर्वगतं चक्षुः (च) शास्त्रं सर्वार्थसाधकं (भवति) । सरलार्थ :- क्रोध- मान-माया - लोभकषायरूपी रोग की सच्ची सफल दवा शास्त्र है। सातिशय पुण्यपरिणाम एवं पुण्यकर्मबंध का सर्वोत्तम कारण शास्त्र है । जीवादि छह द्रव्य, सप्त तत्त्व अथवा नौ पदार्थों को सम्यक् रूप से दिखानेवाला / स्पष्ट करनेवाला शास्त्र ही चक्षु है और इस भव तथा परभव के सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाला भी शास्त्र ही है। भावार्थ :- शास्त्र का अर्थ यहाँ मात्र पुद्गलरूप वचन अथवा देखने में आनेवाले ग्रंथों को नहीं लेना । सर्व शास्त्रों का मूल विषय जीवादि छह द्रव्य, सप्त तत्त्व आदि के साथ ध्यान का ध्येयरूप भगवान आत्मा मुख्य रहना चाहिए । शास्त्र की मुख्यता से ग्रंथकार कथन कर रहे हैं । यहाँ देव एवं गुरु का निषेध अभिप्रेत नहीं है। उनके उपदेश को ही तो शास्त्र कहते हैं । इसतरह यथार्थ भाव का स्वीकार करना आवश्यक है। शास्त्र - भक्ति रहित साधक का स्वरूप - न भक्तिर्यस्य तत्रास्ति तस्य धर्म- क्रियाखिला । अन्धलोकक्रियातुल्या कर्मदोषादसत्फला ।। ४३०।। अन्वय :- यस्य तत्र (शास्त्रे) भक्ति: न अस्ति तस्य अखिला धर्म- क्रिया कर्मदोषात् अन्ध-लोक- क्रिया- तुल्या असत्फला (भवति) । सरलार्थ :- जिस साधक की आगम अर्थात् शास्त्र के प्रति भक्ति नहीं है अर्थात् अनादर है, उसकी सब धर्म - क्रियायें कर्म-दोष के कारण अंध-व्यक्ति की क्रिया के समान व्यर्थ तथा विपरीत फलदाता होती है। भावार्थ :- यहाँ कर्मदोषात् यह शब्द अति महत्त्वपूर्ण है । जिसे शास्त्र के प्रति भक्ति नहीं है, उसकी धर्म की क्रियायें पुण्यरूप होने पर भी वे मात्र कर्मोदय के निमित्त से होती हैं, उनमें जीव का [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/264]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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