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________________ २५८ योगसार-प्राभृत तज्जातीनां निगोदानां कथ्यते जिनपुङ्गवैः ।।४१६।। अन्वय :- पक्के, अपक्के, च पच्यमाने मांसे जिनपुङ्गवैः तज्जातीनां निगोदानां सदा संभवः कथ्यते। सरलार्थ :- मांस चाहे कच्चा हो, चाहे आग से पकाया गया हो, चाहे आग पर पक रहा हो - तीनों प्रकार के उस मांस में जिनेन्द्र देवों ने जिस जीव का मांस है - उस ही जाति के निगोदिया जीव जो एक श्वांस में अठारह बार जन्म-मरण करते हुए निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। भावार्थ :- मांस में दो जाति की हिंसा बतायी जा रही है। जिस जीव का मांस है, वह उस जीव को मारे बिना तो उत्पन्न होता ही नहीं। अत: उस जीव के घात से उत्पन्न हिंसा तो हो ही गई। अब उत्पन्न हुए मांस में भी जिस जीव का मांस है, उसी जाति के निगोदिया जीवों के जन्म एवं मरण के निमित्त से हिंसा होती ही रहती है। जयसेनाचार्य की प्रवचनसार की टीका में समागत गाथा २६१ को टीका सहित देखें, उसमें तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ के ६७ वें श्लोक में यही आशय स्पष्ट शब्दों में है। मांस के कारण अनिवार्य हिंसा - मांसं पक्वमपक्वं वा स्पश्यते येन भक्ष्यते। अनेकाः कोटयस्तेन हन्यन्ते किल जन्मिनाम् ।।४१७॥ अन्वय :- येन (मनुष्येन) पक्वं अपक्वं वा मासं स्पृश्यते वा भक्ष्यते तेन (मनुष्येन) किल जन्मिनां अनेका: कोटय: हन्यन्ते। सरलार्थ:- जो मनुष्य कच्चे मांस को अथवा आग से पकाये हए मांस को मात्र स्पर्श करता है अथवा खाता है, वह मनुष्य निश्चितरूप से करोड़ों जीवों की हिंसा करता है। भावार्थ :- जयसेनाचार्य कृत प्रवचनसार टीका में समागत २६२ गाथा एवं उसकी टीका में इस श्लोक ही का भाव बताया गया है। इसी गाथा को पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ में संस्कृत भाषा में निबद्ध किया है। मधु-भक्षण में हिंसा का महादोष - बहुजीव-प्रघातोत्थं बहु-जीवोद्भवास्पदम् । असंयम-विभीतेन त्रेधा मध्वपि वय॑ते ।।४१८।।। अन्वय :- बहुजीव-प्रघातोत्थं (च) बहुजीवोद्भवास्पदं मधुः अपि असंयम-विभीतेन (साधुना) त्रेधा (मनसा-वचसा-कायेन) वय॑ते। सरलार्थ :- मधु स्वभाव से ही अनेक जीवों के घात से उत्पन्न होता है और वह मधु अनेक जीवों के जन्म-मरण का भी स्थान है। इसलिए असंयम/हिंसा से भयभीत साधु मन-वचन-काय से मधुभक्षण का त्याग करते हैं। भावार्थ :- यहाँ प्रथम पंक्ति में मधु के दोषों को दर्शाया है। मधु वर्जनीय बतलाते हुए उसके [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/258]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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