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________________ २५२ योगसार-प्राभृत बताया गया है। उक्त गाथा तथा उसकी टीका भी अवश्य देखें। शरीर में जीवों की उत्पत्ति छठा कारण - कक्षा-श्रोणि-स्तनाद्येषु देह-देशेषु जायते । उत्पत्तिः सूक्ष्म-जीवानां यतो, नो संयमस्ततः ।।४०५।। अन्वय :- यतः (स्त्रीणां) कक्षा-श्रोणि-स्तनाद्येषु देह-देशेषु सूक्ष्म-जीवानां उत्पत्ति: जायते, ततः (तासां) संयमः नः (जायते)। सरलार्थ :- क्योंकि स्त्रियों के कांख, योनि, स्तनादिक शरीर के अंग-उपांगों में सूक्ष्म जीवों की बहुत उत्पत्ति होती है, इसलिए उनके सकल संयम नहीं बनता। भावार्थ :- आचार्य जयसेनमान्य प्रवचनसार की गाथा २५० एवं उसकी टीका में अधिक स्पष्टीकरण आया है, उसे अवश्य देखें । वहाँ का विशेष अंश निम्न प्रकार है - प्रश्न :- क्या पुरुषों के अंग-उपांग में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति नहीं होती? उत्तर :- ऐसा नहीं कहना चाहिए । पुरुषों के अंगोपांग में भी जीवों की उत्पत्ति होती है; परंतु स्त्रियों के शरीर में बहुलता से उत्पत्ति होती है । होने मात्र से समानता नहीं होती है। एक के विष की कणिका मात्र है, दूसरे के विष के पर्वत हैं। दोनों में क्या समानता है? स्त्री-पर्याय में दिगंबरता का अभाव - शशाङ्कामल-सम्यक्त्वाः समाचार-परायणाः । सचेलास्ताः स्थिता लिङ्गे तपस्यन्ति विशुद्धये ।।४०६।। अन्वय :- शशाङ्कामल-सम्यक्त्वा: समाचार-परायणाः (च) ता: (स्त्रियः अपि) लिङ्गे सचेलाः स्थिता: विशुद्धये तपस्यन्ति । सरलार्थ :- जो स्त्रियाँ चंद्रमा के समान निर्मल सम्यक्त्व से सहित हैं और आगम-कथित समीचीन आचरण में प्रवीण हैं, वे स्त्रियाँ भी सवस्त्ररूप से स्थित हई आत्मशुद्धि के लिये तपश्चरण करती हैं। (दिगम्बरता का स्वीकार नहीं कर पाती)। भावार्थ :- इस श्लोक के अर्थ के साथ अति समानता रखनेवाली आचार्य जयसेन कृत टीका में समागत गाथा २५१ का अर्थ निम्नप्रकार है - यदि स्त्री सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो, आगम के अध्ययन से भी सहित हो तथा घोर चारित्र का भी आचरण करती हो तो भी स्त्री के (संपूर्ण कर्मों की) निर्जरा नहीं कही गई है। इस गाथा की टीका में घोर चारित्र का अर्थ पक्षोपवास, मासोपवास किया है। ___ गाथा २५१ की टीका में आचार्य जयसेन ने विशेष खुलासा किया है, उसे देखें। जिनलिंग-ग्रहण के योग्य पुरुष - शान्तस्तपःक्षमोऽकुत्सो वर्णेष्वेकतमस्त्रिषु। कल्याणाङ्गो नरो योग्यो लिङ्गस्य ग्रहणे मतः ।।४०७।। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/252 ]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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