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________________ चारित्र अधिकार २३७ 'प्रसिद्ध है' - ऐसा कहते हैं; लेकिन लौकिकजनों के सम्पर्क का समर्थन कोई भी नहीं करते हैं। प्रवचनसार गाथा २६८- २६९ एवं उसकी टीका भी अवश्य देखें । लोकपंक्ति अर्थात् लोकानुरंजन भी कल्याणकारी धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणाङ्गं मनीषिणाम् । - तन्निमित्तः पुनर्धर्मः पापाय हतचेतसाम् ।।३७७।। अन्वय :- मनीषिणां धर्माय क्रियमाणा सा (लोकपङ्क्तिः) कल्याणाङ्गं (भवति) । पुनः हतचेतसां तन्निमित्त: ( लोकपङ्क्तिनिमित्त:) धर्म: पापाय (भवति) । सरलार्थ :- जो सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञानी विद्वान् साधु हैं, उनकी धर्मप्रभावना अथवा जीवदया करने के अभिप्राय से की गयी उक्त लोकाराधना / लोकानुरंजनरूप क्रिया भी कल्याणकारिणी होती है और मिथ्यादृष्टि/अविवेकी साधु हैं, उनकी विषय-कषाय अथवा अज्ञान के कारण से की गई वही की वही - लोकानुरंजनरूप क्रिया पापबंध का कारण बन जाती है। भावार्थ :- क्रिया, परिणाम और अभिप्राय नवीन कर्मबंध में अपना-अपना भिन्न-भिन्न स्थान रखते हैं । क्रिया जो जड़ शरीरादि अचेतन द्रव्य की होने के कारण उससे किंचित् मात्र नवीन कर्मबंध नहीं होता। परिणाम अर्थात् चारित्रगुण के शुभाशुभरूप भाव स्वीकारेंगे तो अधिक से अधिक ४० कोडाकोडीसागर का बंध हो सकता है और अभिप्राय श्रद्धागुण की विपरीत पर्याय लेंगे तो ७० कोडाकोडीसागर का बंध होता है, जो अनंतसंसार का निमित्त होता है । अतः सबसे पहले अभिप्राय को यथार्थ करना चाहिए अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति करना ही उसका सच्चा साधन है । अभिप्राय बदलने के कारण परिणाम तो सहज ही सुधरते हैं और क्रिया भी यथार्थ होती है। इसकारण ही मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार के पृष्ठ २३८ पर कहा है - फल लगता है, सो अभिप्राय में जो वासना है उसका लगता है । आसन्नभव्य जीव को ही मुक्ति की प्राप्ति - मुक्तिमार्गपरं चेतः कर्मशुद्धि - निबन्धनम् । मुक्तिरासन्नभव्येन न कदाचित्पुनः परम् । । ३७८ ।। अन्वय : मुक्तिमार्गपरं चेतः कर्मशुद्धि - निबन्धनं (भवति), कदाचित् परं ( चेत: ) न । पुन: मुक्ति: आसन्नभव्येन ( प्राप्यते ) । सरलार्थ :- मुक्ति प्राप्त करने के लिए जिन जीवों का चित्त मुक्तिमार्ग में अति तत्परता से संलग्न है, उनकी चित्त की वह एकाग्रता कर्मरूपी मल के नाश का कारण है; जो चित्त मुक्तिमार्ग पर आरूढ़ नहीं है, उसके द्वारा कभी भी कर्मों का नाश नहीं होता है और मुक्ति की प्राप्ति आसन्नभव्य जीव को ही होती है। भावार्थ:- मुक्ति की प्राप्ति जीव को ही होती है, ऐसा सामान्य कथन है। विशेषरूप से विचार किया जाय तो मुक्ति की प्राप्ति भव्यजीवों को होती है, अभव्य जीवों को नहीं और भी सूक्ष्मता से [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/237]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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