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________________ चारित्र अधिकार २३५ भावार्थ :- सम्यग्दर्शन के बिना मात्र शास्त्र के ज्ञान से जीव न स्वयं अपना कल्याण कर सकता है न दूसरों के कल्याण में निमित्त हो सकता है। इसलिए ११ अंग एवं ९ पूर्व का शास्त्रज्ञान होने पर भी अभव्य अथवा भव्य जीव भी अपना हित नहीं कर सकते । यथार्थ शास्त्रज्ञान के साथ यदि किसी भी कषाय चौकड़ी का अभाव न हो तो वह चारित्र मलिन अर्थात् मिथ्या हो जाता है। भवाभिनन्दी का स्वरूप - भवाभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा-वशीकृताः। कुर्वन्तोऽपि परं धर्मं लोक-पङ्क्ति-कृतादराः ।।३७४।। अन्वय :- केचित् (जनाः) परं धर्मं कुर्वन्तः अपि भवाभिनन्दिनः संज्ञा-वशीकृताः (वा) लोक-पङ्क्ति -कृतादराः (सन्ति)। सरलार्थ :- कुछ मनुष्य परम धर्म अर्थात् मुनिधर्म के बाह्य आचरण को आचरते हुए भी भवाभिनन्दी अर्थात् संसार का अभिनंदन करनेवाले अनंत संसारी भी होते हैं और आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह नाम की चार संज्ञाओं/अभिलाषाओं के आधीन होते हैं एवं लोकपंक्ति में आदर रखते हैं अर्थात् लोगों को प्रसन्न करने आदि में रुचि रखते हुए प्रवृत्त होते हैं। भावार्थ :- आचार्य कुंदकुंद ने अष्टपाहुड में भावपाहुड की गाथा ११२ में भी ऐसा ही भाव प्रगट किया है, उसे अवश्य देखें। पंडित जुगलकिशोर मुख्तार की व्याख्या हम नीचे उनके ही शब्दों में दे रहे हैं - “यद्यपि जिनलिंग को/निर्ग्रन्थ जैनमुनि-मुद्रा को धारण करने के पात्र अति निपुण एवं विवेकसम्पन्न मानव ही होते हैं फिर भी जिनदीक्षा लेनेवाले साधुओं में कुछ ऐसे भी निकलते हैं जो बाह्य में परम धर्म का अनुष्ठान करते हुए भी अन्तरंग से संसार का अभिनन्दन करनेवाले होते हैं। ऐसे साधु-मुनियों की पहचान एक तो यह है कि वे आहारादि चार संज्ञाओं के अथवा उनमें से किसी एक के भी वशीभूत होते हैं; दूसरे लोकपंक्ति में - लौकिकजनों जैसी क्रियाओं के करने में उनकी रुचि बनी रहती है और वे उसे अच्छा समझकर करते भी हैं। आहारसंज्ञा के वशीभूत मुनि बहुधा ऐसे घरों में भोजन करते हैं जहाँ अच्छे रुचिकर एवं गरिष्ठस्वादिष्ट भोजन के मिलने की अधिक सम्भावना होती है, उद्दिष्ट भोजन के त्याग की/आगमोक्त दोषों के परिवर्जन की कोई परवाह नहीं करते, भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रों से आया हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञा के विरुद्ध होता है। भय-संज्ञा के वशीभूत मुनि अनेक प्रकार के भयों से आक्रान्त रहते हैं, परीषहों के सहने से घबराते तथा वनवास से डरते हैं; जबकि सम्यग्दृष्टि सप्त प्रकार के भयों से रहित होता है। मैथुनसंज्ञा के वशीभूत मुनि ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करते हुए भी गुप्त रूप से उसमें दोष लगाते हैं। परिग्रह-संज्ञावाले साधु अनेक प्रकार के परिग्रहों की इच्छा को धारण किये रहते हैं, पैसा जमा [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/235]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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