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________________ चारित्र अधिकार २३१ भावार्थ :- आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार गाथा २२४ की टीका में निर्यापक गुरुओं को शिक्षागुरु तथा श्रुतगुरु भी कहा है। छेद शब्द के अनेक अर्थ होते हैं - यहाँ प्रकरण के अनुसार त्रुटि, दोष, अतिचार, प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्तभेद, दिवस-मासादिक के परिमाण से दीक्षा छेद आदि कह सकते हैं । इस श्लोक का भाव स्पष्ट समझने के लिये प्रवचनसार गाथा २१० तथा उसकी अमृतचंद्र आचार्य एवं जयसेनाचार्य की टीका को देखना उपयोगी है। चारित्र में छेद होने पर उपाय - प्रकृष्टं कुर्वतः साधोश्चारित्रं कायचेष्टया । यदि च्छेदस्तदा कार्या क्रियालोचन - पूर्विका ॥ ३६६॥ आश्रित्य व्यवहारज्ञं सूरिमालोच्य भक्तितः । दत्तस्तेन विधातव्यश्छेदश्छेदवता सदा ।। ३६७।। अन्वय :- - प्रकृष्टं चारित्रं कुर्वतः साधोः यदि कायचेष्टया च्छेदः (जायते), तदा आलोचनपूर्विका क्रिया कार्या । छेदवता (योगिना) व्यवहारज्ञं सूरिं आश्रित्य भक्तितः (स्वच्छेदं) आलोच्य तेन (सूरिणा ) दत्त: छेदः सदा विधातव्यः । - सरलार्थ :- उत्तम चारित्र का अनुष्ठान करते हुए साधु के यदि काय की चेष्टा से दोष लगे अन्तरंग से दोष न लगे - तो उसे (उस दोष के निवारणार्थ) आलोचन - पूर्वक क्रिया करनी चाहिए। यदि अन्तरंग से दोष हो जाये तो उसके कारण योगी छेद को प्राप्त सदोष होता है, उसे किसी व्यवहारशास्त्रज्ञ गुरु के आश्रय जाकर भक्तिपूर्वक अपने दोष की आलोचना करनी चाहिए और वह जो प्रायश्चित दे उसे ग्रहण करना चाहिए । भावार्थ :- प्रयत्नपूर्वक चारित्र का आचरण करते हुए अंतरंग में रागादिरूप अशुद्धता न हो, मात्र काय की चेष्टा से व्रत में कुछ दोष लगे तो उसका निराकरण मात्र आलोचनात्मक क्रिया से हो जाता है। अन्तरंग के दूषित होनेपर किसी अच्छे व्यवहार - शास्त्र - कुशल गुरु का आश्रय लेकर अपने दोष की आलोचना करते हुए प्रायश्चित्त की याचना करना और उनके दिये हुए प्रायश्चित्त को भक्तिभाव से ग्रहण करके उसका पूरी तौर से अनुष्ठान करना चाहिए। इस श्लोक के भाव को अधिक विशद समझने के लिए प्रवचनसार गाथा २११ एवं २१२ को तथा इन दोनों गाथाओं की टीकाओं को एवं भावार्थ को भी अवश्य देखें । विहार करने की पात्रता - भूत्वा निराकृतश्छेदश्चारित्राचरणोद्यतः । मुञ्चमानो निबन्धानि यतिर्विहरतां सदा ।। ३६८ ।। [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/231]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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