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________________ मोक्ष अधिकार २२३ परायणाः (सन्ति ते) सांप्रतेक्षणा: खिद्यन्ते। सरलार्थ :- जो जीव निज आत्मतत्त्व को नहीं जानते, हित-अहित के विवेक में अंधे हैं अर्थात अपने हित-अहित को नहीं पहिचानते. विपरीत आचरण करने में चतर हैं और वर्तमान दृष्टिवंत अर्थात् स्पर्शादि विषयों का सेवन करने में ही सुख है, ऐसी श्रद्धा रखनेवाले हैं; वे जीव नियम से दुःखी हैं। भावार्थ :- इस श्लोक में मिथ्यात्वजन्य परिणामों का कथन किया है। मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने के लिये बाधक चार परिणामों का दिग्दर्शन इस श्लोक में स्पष्ट जानने को मिलता है। सही देखा जाय तो आत्मतत्त्व का अजानकार जीव मिथ्यादृष्टि है और जिसकी श्रद्धा मिथ्या है, उसके लिये हिताहित के ज्ञान का अभाव आदि सर्व मिथ्यादृष्टिगत अपात्रता नियमपूर्वक रहती है। यदि जीव श्रद्धा यथार्थ करता है तो मोह का पराभव चालू हो जाता है। पहले मिथ्यात्वजन्य विपरीतता निकल जाती है और बाद में क्रम से चारित्रगत दोष निकलते रहते हैं। मोही जीव को विरक्ति का अभाव - __ आधि-व्याधि-जरा-जाति-मृत्यु-शोकाद्युपद्रवम् । पश्यन्तोऽपि भवं भीमं नोद्विजन्तेऽत्र मोहिनः ।।३५०।। अन्वय :- आधि-व्याधि-जरा-जाति-मृत्यु-शोकादि भीमं उपद्रवं भवं पश्यन्तः अपि मोहिनः अत्र न उद्विजन्ते। सरलार्थ :- अनेक आधियों से अर्थात् मानसिक पीड़ाओं से, अनेक व्याधियों से अर्थात् शारीरिक कष्टप्रद रोगों से और जन्म, जरा, मरण तथा शोकादि उपद्रवों से सहित संसार का भयंकर रूप देखते एवं अनुभवते हुए भी मोही जीव संसार से विरक्त नहीं होते; परन्तु वे संसार में ही आसक्त रहते हैं। भावार्थ :- इस श्लोक में मिथ्यात्व सहित चारित्रमोहनीयजन्य भावों का ज्ञान कराया है। अघाति कर्मोदय के निमित्त जीव के संयोग में अनेक पदार्थों का समागम होना स्वाभाविक है। उन समागत पदार्थों का मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहना ही ज्ञानी का कर्तव्य होता है; लेकिन मिथ्यादृष्टि जीव प्राप्त संयोगों में इष्टानिष्ट की कल्पना करके सुखी-दुःखी होता है। संयोगों से सुखी होना या दुःखी होना - दोनों परिणाम अनुचित हैं, दोनों में स्वाभाविक समता चाहिए। समता भाव को ही वीतराग भाव कहते हैं। मिथ्यात्वजन्य परिणाम का दृष्टांत - अकृत्यं दुर्धियः कृत्यं कृत्यं चाकृत्यमञ्जसा। अशर्म शर्म मन्यन्ते कच्छू-कण्डूयका इव ।।३५१॥ अन्वय :- कच्छू-कण्डूयका इव दुर्धियः (मनुष्याः) अञ्जसा अकृत्यं कृत्यं, कृत्यं अकृत्यं च अशर्म शर्म मन्यन्ते। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/223]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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