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________________ मोक्ष अधिकार २२१ इसमें विविक्तमात्मानं सम्यक् ‘समीक्ष्य' पद के द्वारा विविक्त आत्मदर्शन का उल्लेख है, जो कि उक्त तीनों उपायों का लक्ष्यभूत एवं ध्येय है। पं. अशाधरजी ने 'अध्यात्म-रहस्य' शास्त्र में इन चारों का श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि के रूप में उल्लेख करते हुए, इन चारों शक्तियों को क्रम से सिद्ध करनेवाले योगी को पारगामी लिखा है - शुद्ध श्रुति-मति-ध्याति-दृष्टयः स्वात्मनि क्रमात् । यस्य सद्गुरुतः सिद्धाः स योगी योगपारगः।। इन चारों के सुन्दर वर्णन के लिए अध्यात्म-रहस्य ग्रन्थ को देखना चाहिए। विद्वत्ता का सर्वोत्तम फल - आत्म-ध्यान-रति यं विद्वत्तायाः परं फलम् । अशेष-शास्त्र-शास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधनैः।।३४५।। अन्वय :- विद्वत्तायाः परं फलम् आत्म-ध्यान-रति: ज्ञेयं (अन्यथा) अशेष-शास्त्र-शास्तृत्वं संसारः (एव अस्ति इति) धीधनैः अभाषि। सरलार्थ :- विद्वत्ता का सर्वोत्तम फल निज शुद्धात्म ध्यान में रति अर्थात् आत्मलीनता ही जानना चाहिए। यदि विद्वत्ता प्राप्त होने पर भी वह विद्वान मनुष्य आत्म-मग्नतारूप कार्य न करे तो संपूर्ण शास्त्रों का शास्त्रीपना अर्थात् जानना भी संसार ही है; ऐसा बुद्धिधनधारकों ने अर्थात् महान विद्वानों ने कहा है। भावार्थ :- जिनेन्द्र कथित शास्त्र का प्रयोजन ही आत्मध्यान से आत्मकल्याण करना है, यदि प्रयोजन ही सिद्ध नहीं होता तो शास्त्र का ज्ञान व्यर्थ है। शास्त्र का जानना संसार है अर्थात् अन्य रागद्वेषमूलक सांसारिक कार्य जिसतरह संसार के कारण हैं उसीतरह शास्त्रज्ञान भी संसार का कारण हो गया । इसलिए ग्रंथकर्ता, विद्वानों को आत्मानुभव एवं आत्मलीनता के लिये प्रेरित कर रहे हैं, जो योग्य है। विद्वानों का संसार - संसारः पुत्र-दारादिः पुंसां संमूढचेतसाम् । संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितात्मनाम्।।३४६।। अन्वय :- संमूढचेतसां पुंसां पुत्र-दारादिः (एव) संसारः (अस्ति; तथा) अध्यात्मरहितात्मनां विदुषां शास्त्रं संसारः (अस्ति)। सरलार्थ :- जो मनुष्य स्त्री-पुत्रादिक परद्रव्य में आसक्त होने से अच्छी तरह मूढचित्त अर्थात् अज्ञानी हैं, उनका संसार स्त्री-पुत्रादिक है। जो विद्वान शास्त्रार्थ को जानते हुए भी अध्यात्म से अर्थात् आत्मलीनता से रहित हैं, उनका संसार शास्त्र है। भावार्थ :- जिसतरह शास्त्र-ज्ञान रहित सामान्य मनुष्य स्त्री-पुत्रादि की व्यवस्था के चक्कर में फंस जाता है तथा अपने दुर्लभ मनुष्य भव में आत्महित नहीं कर पाता और मनुष्य-जीवन व्यर्थ ही [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/221]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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