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________________ २१७ मोक्ष अधिकार अकर्मरूप में परिवर्तन होना है। इसके लिये मंत्रोच्चार से विष दूर होने का दृष्टान्त दिया है । इस कथन से अज्ञानी को भ्रम होता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता हो गया । यहाँ तो निमित्तनैमित्तिक संबंध का यथार्थ ज्ञान कराया है। शुद्धात्मा का ध्यान अलौकिक फलदाता चिन्त्यं चिन्तामणिर्दत्ते कल्पितं कल्पपादपः । अविचिन्त्यमसंकल्प्यं विविक्तात्मानुचिन्तितः ।। ३३८।। अन्वय : चिन्तामणिः चिन्त्यं दत्ते । कल्पपादपः कल्पितं (दत्ते, परंतु ) अनुचिन्तित: विविक्तात्मा अविचिन्त्यं असंकल्प्यं (दत्ते ) । सरलार्थ :- चिंतामणि रत्न के सामने बैठकर जीव जिन वस्तुओं का चिंतन करता है, चिंताम रत्न उन वस्तुओं को जीव को देता है और कल्पवृक्ष कल्पित पदार्थों को देता है; परंतु त्रिकाली नि शुद्धात्मा का ध्यान जीव के लिये अचिंत्य और अकल्पित पदार्थों को देता है। भावार्थ :- इस श्लोक में शुद्धात्मा के ध्यान की विशेषता को बताया है । यहाँ देता है, देता है, ऐसा शब्द प्रयोग ग्रंथकार ने किया है; तथापि वे तीनों चिंतामणि रत्न, कल्पवृक्ष और ध्यान अनुकूल वस्तुओं के संयोग में निमित्त हैं; ऐसा अर्थ समझना चाहिए। जिनवाणी में कहीं पर कितना भी कोई देता है, लूट लेता है, प्रभाव डालता है; ऐसा कथन आता है, उसका अर्थ निमित्त सापेक्ष ही करना चाहिए। एक द्रव्य- - दूसरे द्रव्य का कुछ भी अच्छाबुरा कर ही नहीं सकता, इस मूल विषय को मुख्य रखते हुए ही अर्थ करना, यही जिनवाणी का प्रतिपाद्य विषय है । शुद्धात्म - ध्यान से कामदेव का सहज नाश जन्म-मृत्यु-जरा-रोगा हन्यन्ते येन दुर्जयाः । मनोभू-हनने तस्य नायासः कोऽपि विद्यते । । ३३९।। अन्वय : • येन (शुद्धात्मन: ध्यानेन) दुर्जया: जन्म - मृत्यु - जरा - रोगाः हन्यन्ते तस्य मनोभूहनने कः अपि आयासः न विद्यते । सरलार्थ :- जिस शुद्धात्मा के ध्यान से दुर्जय अर्थात् जीतने के लिये कठिन जन्म, जरा, मरण, रोग आदि जीव के विकार नाश को प्राप्त होते हैं, उस शुद्धात्मा को काम विकार के हनन में कोई भी नया श्रम करना नहीं पड़ता - वह तो उससे सहज ही विनाश को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ : - इस श्लोक में जन्म- जरादि विकार अथवा कामवासना का नाश शुद्धात्म- ध्यान से स्वयमेव होने की बात कही है। जीव के स्वभाव में विकार नहीं और उस अविकारी स्वभाव संपन्न जीव के ध्यान से उत्पन्न पर्याय में विकार उत्पन्न ही नहीं होते, इस प्रक्रिया को 'नाश हो जाते हैं', इन शब्दों में व्यवहार से कहा जाता है। वाद-विवाद अज्ञान अंधकारमय - [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/217]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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