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________________ २०८ योगसार प्राभृत अनुपपत्तित: । सरलार्थ :- यदि कोई कहे - अरहंत परमात्मा केवलज्ञानी के शुक्लध्यान के नियोग से कर्म सर्वथा भेद को प्राप्त नहीं होते अर्थात् कर्मों का नाश नहीं होता और किसी भी जीव को कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता है; तो यह कथन असत्य है । क्योंकि आत्मा के राग-द्वेष- मोह परिणाम अशाश्वत हैं। कर्मों का विनाश होने पर राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती है । भावार्थ :- शंकाकार ने शुक्लध्यान से कर्मों का भेद (नाश) न होना और मुक्ति की अप्राप्ति की बात की है। ग्रंथकार ने सीधा शंका का समाधान तो नहीं दिया; लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय कहा कि जीव में उत्पन्न रागादि परिणाम अशाश्वत हैं। जीव स्वभाव से ही अरागी है । अरहंत अवस्था में रागादि के अभाव से नवीन कर्मबन्ध न होने की और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होने की भी बात स्पष्ट की है, जिससे मुक्ति का होना अनिवार्य है । सिद्ध परमात्मा पुनः संसार में नहीं आते. न निर्वृतः सुखीभूतः पुनरायाति संसृतिम् । सुखदं हि पदं हित्वा दुःखदं कः प्रपद्यते ।। ३२०।। अन्वय :- ( यथा) हि सुखदं पदं हित्वा दुःखदं (पदं) कः प्रपद्यते ? (क: अपि न; तथा एव) सुखीभूतः निर्वृतः (सिद्ध- परमात्मा) संसृतिं पुन: न आयाति । सरलार्थ : - लौकिक जीवन में जिसतरह कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा से सुखदायक पद/ स्थान को छोड़कर दुःखदायक स्थान का स्वीकार नहीं करता; उसीतरह अव्याबाध अनंत सुखमय सिद्ध स्थान को छोड़कर सिद्ध परमात्मा संसारी नहीं होते । भावार्थ : :- इस श्लोक में मुक्त जीव पुनः संसारी नहीं होते, इस विषय को स्पष्ट किया है । जीव जहाँ असंतुष्ट होता है, वहाँ से दूसरे स्थान पर जाने का प्रयास करता है, जाता है। मुक्त अवस्था में कुछ असंतोष अथवा अधूरेपने की बात ही नहीं है; अतः फिर संसार में अवतार लेने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । प्रश्न :- • अनेक परमात्माओं / भगवन्तों ने दूसरों के उद्धार के लिये अवतार लिया और उद्धार भी किया ऐसा सुनने को मिलता है? उत्तर :- - जो-जो सुनने को मिलता है, वह सत्य ही होता है; ऐसा नियम तो है नहीं । यदि किसी ने सचमुच अवतार लिया ही है तो वे मुक्त ही नहीं हुए थे, ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि मुक्त जीव को अवतार लेने की इच्छा ही नहीं होती और आवश्यकता भी नहीं पड़ती। जहाँ से पुन: कहीं भी जाने की इच्छा ही न हो, उसी अवस्था का नाम मुक्त अवस्था है। जिनागम में किसी ने अवतार लिया है, ऐसा कथन भी नहीं मिलता । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/208 ]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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