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________________ १९८ योगसार-प्राभृत आत्मकल्याण का विषय किसी न किसी रूप से आता ही नहीं हो तो वह कथन जिनधर्म का नहीं माना जा सकता। योगी का स्वरूप और उसके जीवन का फल - (मन्दाक्रान्ता) इत्थं योगी व्यपगतपर-द्रव्य-संगप्रसङ्गो नीत्वा कामं चपल-करण-ग्राममन्तर्मुखत्वम् । ध्यात्वात्मानं विशदचरण-ज्ञान-दृष्टिस्वभावं, नित्यज्योतिः पदमनुपमं याति निर्जीर्णकर्मा ।।३०२।। अन्वय :- इत्थं व्यपगत पर-द्रव्य-संगप्रसङ्ग निर्जीर्णकर्मा योगी कामं चपल-करणग्राम-अन्तर्मुखत्वं नीत्वा विशदचरण-ज्ञान-दृष्टिस्वभावं आत्मानं ध्यात्वा नित्यज्योति: अनुपम पदं याति। सम्यग्दृष्टि को ज्ञानी कहा है और ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह का अभाव कहा है; इसलिए सम्यग्दृष्टि विरागी है। यद्यपि उसके इन्द्रियों के द्वारा भोग दिखाई देता हो; तथापि उसे भोग की सामग्री के प्रति राग नहीं है। वह जानता है कि “यह (भोगों की सामग्री) परद्रव्य है, मेरा और इसका कोई संबंध नहीं है; कर्मोदयके निमित्त से इसका और मेरा संयोग-वियोग है।" जबतक उसे चारित्रमोह का उदय आकर पीड़ा करता है और स्वयं बलहीन होने से पीड़ा को सहन नहीं कर सकता, तबतक जैसे रोगी रोग की पीड़ा को सहन नहीं कर सकता, तब उसका औषधि इत्यादि के द्वारा उपचार करता है। इसीप्रकार भोगोपभोग सामग्री के द्वारा विषयरूप उपचार करता हुआ दिखाई देता है; किन्तु जैसे रोगी रोग को या औषधि को अच्छा नहीं मानता, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि चारित्रमोह के उदय को या भोगोपभोग सामग्री को अच्छा नहीं मानता। और निश्चय से तो ज्ञातृत्व के कारण सम्यग्दृष्टि विरागी उदयागत कर्मों को मात्र जान ही लेता है, उनके प्रति उसे रागद्वेष-मोह नहीं है । इसप्रकार राग-द्वेष-मोह के बिना ही उनके फल को भोगता हुआ दिखाई देता है, तो भी उसके कर्म का आस्रव नहीं होता, कर्मास्रव के बिना आगामी बन्ध नहीं होता और उदयागत कर्म तो अपना रस देकर खिर ही जाते हैं; क्योंकि उदय में आने के बाद कर्म की सत्ता रह ही नहीं सकती। इसप्रकार उसके नवीन बन्ध नहीं होता और उदयागत कर्म की निर्जरा हो जाने से उसके केवल निर्जरा ही हुई । इसलिए सम्यग्दृष्टि विरागी के भोगोपभोग को निर्जरा का ही निमित्त कहा गया है। पूर्व कर्म उदय में आकर उसका द्रव्य खिर जाना, सो वह द्रव्यनिर्जरा है। समयसार, निर्जरा अधिकार, पृष्ठ-३२१ [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/198]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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