SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ योगसार-प्राभृत की आत्म-तत्त्व में आश्चर्यकारी रति (प्रेम) है। भावार्थ :- इस श्लोक में उदाहरण देकर आत्मोपलब्धि से प्राप्त सुख को ग्रंथकार समझा रहे हैं। मनुष्य मात्र को भोजन-प्राप्त होने पर समाधान होने का अनुभव हमेशा का है। उसीतरह आत्मोपलब्धि से भी तत्काल सुख होने की बात कही है। यहाँ तो स्थूल कथन किया है। भोजन से प्राप्त पराधीन सुख तो तात्कालिक एवं इंद्रियजन्य है और आत्मानुभव का स्वाधीन सुख सार्वकालिक तथा अतीन्द्रिय है। दोनों के सुख में जमीन-आसमान का विष और अमृत के समान भेद है; लेकिन लौकिकजनों को समझाना है; इसलिए स्थूल कथन किया है। परद्रव्य के त्याग का स्वरूप - परद्रव्यं यथा सद्भिर्ज्ञात्वा दुःखवि भी रु भि : । दुःखदं त्यज्यते दूरमात्मतत्त्वरतैस्तथा ।।२९५।। अन्वय :- यथा दुःख-विभीरुभिः सद्भिः परद्रव्यं दुःखदं ज्ञात्वा दूरं त्यज्यते तथा आत्मतत्त्वरतैः (परद्रव्यं त्यज्यते)। सरलार्थ :- जिसप्रकार दुःख से भयभीत सत्पुरुष परद्रव्य को दुःखदायक जानकर दूर से ही छोड़ देते हैं; उसीप्रकार निजशुद्धात्मतत्त्व में मग्न/लीन जीव परद्रव्य को दूर से ही छोड़ देते हैं। ___भावार्थ :- ग्रहणपूर्वक ही त्याग होता है, इस नियम के अनुसार सज्जन पुरुषों ने तो पहले परद्रव्य को ग्रहण किया था । तदनंतर राजदण्ड लोकनिंदा, चोरी आदि पाप के भय से भयभीत होकर परद्रव्यों को त्याग दिया है; ऐसा अर्थ यहाँ नहीं समझना चाहिए। सज्जन अर्थात् सम्यग्दृष्टि परद्रव्य को अपना मानते ही नहीं है । परद्रव्य अपना नहीं है, परद्रव्य में सुख नहीं है, परद्रव्य से सुख नहीं है, परद्रव्यों के साथ मेरा कुछ संबंध ही नहीं है, मैं तो अनादिअनंत सुखस्वभावी भगवान आत्मा हूँ - ऐसी श्रद्धा और ज्ञान करना ही परद्रव्य का त्याग करना है। समयसार गाथा ३४ में कहा भी है - णाणं पच्चक्खाणं अर्थात् ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। जहाँ सम्यग्दृष्टि को ही संपूर्ण परद्रव्य का श्रद्धा अपेक्षा से त्याग रहता है, वहाँ आत्मतत्त्वरत जीव तो और भी आगे बढ़ गया है। उसे तो परद्रव्य में अपनेरूप चारित्र मोहनीय संबंधी भी अस्थिरतारूप व्यक्त राग-द्वेष नहीं होते। अतः उनका त्याग और भी विशेष समझ लेना चाहिए। इस श्लोक में परद्रव्य को तो दूर से ही छोड़ देते हैं, ऐसा कथन व्यवहारनय से किया है। विशोधित ज्ञान और अज्ञान का स्वरूप - ज्ञाने विशोधिते ज्ञानमज्ञानेऽज्ञानमूर्जितम् । शुद्धं स्वर्णमिव स्वर्णे लोहे लोहमिवाश्नुते ।।२९६।। अन्वय :- (यथा) स्वर्णे (विशोधिते) शुद्धं स्वर्ण इव लोहे (च) लोहं इव अश्नुते । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/194]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy