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________________ निर्जरा अधिकार १८१ है; तथापि जीवन में भूमिका के अनुसार और कमजोरी के कारण पर- द्रव्य संबंधी मोह देखने में आता है । योगिराज विशेष पुरुषार्थी होते हैं; इसलिए अन्य किसी भी चेतन-अचेतन पदार्थों में उन्हें आसक्ति तो होती ही नहीं, अन्य पदार्थ उनके संयोग में भी नहीं रहते। इसकारण योगिराज यदि उग्र पुरुषार्थ से श्रेणी पर आरूढ़ हो जाते हैं तो वे उसी भव में अरहन्त-सिद्ध हो सकते हैं । मोक्ष-अवस्था की प्राप्ति की संभावना इस श्लोक में बतायी है। शुद्ध आत्मा को छोड़नेवालों की स्थिति मुक्त्वा विविक्तमात्मानं मुक्त्यै य ऽ न् य म पास त I भजन्ति हिमं मूढा विमुच्याग्निं हिमच्छिदे ।। २७३ ।। अन्वय : 11 विविक्तं आत्मानं मुक्त्वा मुक्त्यै ये अन्यं उपासते ते मूढा: हिमच्छिदे अग्निं विमुच्य हिमं (एव) भजन्ति । सरलार्थ : विविक्त अर्थात् (द्रव्यकर्म-भावकर्म - नोकर्म से रहित ) त्रिकाली, निज शुद्ध, सुख-स्वरूप भगवान आत्मा को छोड़कर जो अन्य (कल्पित रागी -द्वेषी देवी-देवताओं को अथवा अरहंत-सिद्ध आदि इष्ट देवों) की भी मुक्ति के लिये उपासना / ध्यान करते हैं, वे मूढ़ कष्टदायक अि ठंड का नाश करने के लिये अग्नि को छोड़कर शीतलस्वभावी बर्फ का ही सेवन करते हैं, जो नियम अनिष्ट फल दाता है। भावार्थ :- अनंत सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि के उपदेशानुसार मुक्ति-प्राप्ति के लिये अपनी आत्मा को छोड़कर अन्य किसी की भी उपासना, भक्ति अथवा ध्यान उपयोगी तो है नहीं, परन्तु नियम से बाधक हैं; इस निश्चयनय के विषय को मुख्य करके यहाँ ग्रंथकार ने मुक्ति का सीधा उपाय आत्म-उपासना को ही बताया है। - समाधिशतक श्लोक ३१ में आचार्य पूज्यपाद ने भी इसी अभिप्राय को निम्न प्रकार बताया है:यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥ श्लोकार्थ :- तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही - परमात्मा है। इसलिए जबकि परमात्मा और आत्मा में अभेद हैं, मैं ही मेरे द्वारा उपासना किये जाने के योग्य हूँ, दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं; ऐसी वस्तुस्थिति है । अरहंतदेवादि की निरीहवृत्ति से उपासना / ध्यान अथवा भक्ति पुण्य-प्रदाता तो है; लेकिन मुक्ति-प्रदाता नहीं है। जो अन्यत्र देव को ढूँढता है, उसकी स्थिति - योऽन्यत्र वीक्षते देवं देहस्थे परमात्मनि । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/181]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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