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________________ १७६ योगसार-प्राभृत जो आत्मा को ही नहीं समझता उसका बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार का तप, जिसमें ध्यान भी शामिल है, एक प्रकार से निरर्थक होता है अर्थात् उससे न संवर होता है और न निर्जरा। आत्मतत्त्व में लवलीन संयमी को कर्म की निर्जरा - कर्म निर्जीर्यते पूतं विदधानेन संयमम् । आत्मतत्त्वनिविष्टेन जिनागमनिवेदितम् ।।२६३।। अन्वय :- जिनागम-निवेदितं पूतं संयमं विदधानेन आत्म-तत्त्व-निविष्टेन कर्म निर्जीर्यते । सरलार्थ :- जिनागम-कथित पवित्र संयम का आचरण करते हुए जो मुनिराज अनादिअनंत, निज, शुद्ध आत्मतत्त्व में लवलीन रहते हैं, उनके ज्ञानावरणादि आठों कर्म निर्जरा को प्राप्त होते हैं। भावार्थ :- श्लोक में व्यवहार एवं निश्चय चारित्र का कथन किया है। संयम के आचरण की बात करते समय संयम को दो विशेषण दिये हैं, जो महत्त्वपूर्ण हैं । संयम को जिनागम कथित बताया, इसका अर्थ अन्यमत प्रतिपादित अथवा मनोकल्पना से स्वीकृत संयम का निषेध किया है। पूर्त (पवित्र) विशेषण देकर संयम विषयक बहुमान स्पष्ट किया है। व्यवहार चारित्र के कारण मुनिराज के जो शुभभाव होता है, उससे तो पुण्यबंध होता है, यह समझना चाहिए। इस पुण्यरूप आचरण के समय कषायों के अभावपूर्वक जो शुद्धपरिणति रहती है, उससे अथवा अप्रमत्तविरत गणस्थान में प्रवेश होने से जो आत्मा में लवलीनता काशद्धोपयोगरूप कार्य होता है, उससे आठों कर्म की निर्जरा होती है, इसतरह यथायोग्य समझना चाहिए। कर्म-रज को धो डालनेवाले मुनिराज का स्वरूप - अन्याचारपरावृत्तः स्वतत्त्वचरणादृतः। संपूर्णसंयमो योगी विधुनोति रजः स्वयम् ।।२६४।। अन्वय :- अन्य-आचार-परावृत्तः स्व-तत्त्व-चरणादृतः सम्पूर्ण-संयम: योगी स्वयं (कर्म) रज: विधुनोति। सरलार्थ :- शुभाशुभरूप अन्य आचरण से सर्वथा विमुख, स्वतत्त्व अर्थात् निज भगवान आत्मा में आचरण करने में सावधान एवं उत्साही, परिपूर्ण संयमी योगिराज अन्य की सहायता के बिना स्वयं कर्मरूपी रज को विशेष रीति से धो डालते हैं। भावार्थ :- इस श्लोक में क्षीणमोही गुणस्थानवर्ती मुनिराज के जीवन की ओर संकेत कर रहे हैं। शुभाशुभ परिणामों का यहाँ सर्वदृष्टि से सदा के लिये अभाव हो गया है, जिसे अन्य आचरण से परावृत्त शब्द से स्पष्ट किया है। स्वतत्त्वचरणादृतः शब्द से अब योगिराज को सर्वोत्तम शुद्धोपयोग में उत्साह है, अन्य किसी में नहीं, इस विषय को बता दिया है। संपूर्ण संयम - शब्द से क्षायिक यथाख्यात चारित्र का ज्ञान करा दिया है। विधुनोति शब्द का प्रयोग चारों घाति कर्मों के नाश में तत्परता को सूचित करता है। अब इस साधक को मात्र अरहंत पद की ही प्राप्ति होना बाकी रहा है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/176]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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