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________________ संवर अधिकार १६९ अन्वय :- ततः संवरार्थिना मुमुक्षुणा सर्वं अचेतनं परित्याज्यं (च) स्व-आत्मस्थं चेतनं सर्वदा सेव्यं। सरलार्थ :- अतः जो मोक्ष का अभिलाषी एवं संवर का अर्थी है, उसके लिये समस्त अचेतन पदार्थ समूह त्यजनीय अर्थात हेय है और अपना अनादि-अनंत चेतनरूप जीव तत्त्व सदा ही ध्येयरूप से सेवनीय/उपादेय है। भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार इस अधिकार का सम्पूर्ण मर्म ही समझा रहे हैं। मुमुक्षु को संवर प्रगट करने के लिये, संवर बढ़ाने के लिये और संवर तत्त्व की पूर्णता के लिये तथा मोक्ष-प्राप्ति के लिये भी जो ध्यान का ध्येय निज भगवान आत्मा है, उसकी निरन्तर सेवा/उपासना करने की सीधी प्रेरणा दी है। शीघ्र संवर करनेवालों का परिचय - (स्वागता) आत्मतत्त्वमपहस्तित-रागं ज्ञान-दर्शन-चरित्रमयं मुक्तिमार्गमवगच्छति योगी संवृणोति दुरितानि स सद्यः ।।२५२।। अन्वय :- यः योगी अपहस्तितरागं आत्म-तत्त्वं, च ज्ञान-दर्शन-चारित्रमयं मुक्तिमार्ग (च) अवगच्छति सः सद्यः दुरितानि (कर्माणि) संवृणोति। सरलार्थ :- जो योगी अर्थात् महामुनिराज राग-रहित/वीतरागस्वभावी त्रिकाली निज शुद्ध आत्मतत्त्वरूप द्रव्य को और सम्यक्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मोक्षमार्गस्वरूप पर्याय को जानते/ पहिचानते हैं, वे कर्मों का शीघ्र अर्थात् पूर्ण संवर करते हैं। भावार्थ :- इस पाँचवें संवराधिकार का यह उपसंहाररूप श्लोक है, अतः इसमें परिपूर्ण संवर करनेवालों का परिचय ग्रंथकार करा रहे हैं। अब यहाँ पुण्य-पापरूप सर्व प्रकार के आस्रव के आगमन का निरोधरूप संवर हो गया है, इसलिए इस अवस्था को प्राप्त मुनिराज के बन्ध का अभाव होने से पीच टीमोथ की पापि हो जाती है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/169]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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