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________________ संवर अधिकार १६३ कर्मों का और उनके निमित्त से होनेवाले भावी पुण्य-पापरूप परिणामों का त्याग करते हैं, उस त्याग को प्रत्याख्यान कहते हैं। भावार्थ :- प्रत्याख्यान में भावी अशुद्ध परिणामों का त्याग होता है। प्रश्न :- जो परिणाम अभी हुए ही नहीं, उनका त्याग कैसे किया जाता है? उत्तर :- जीव को परिणामों के लिये बाह्य वस्तु की कहाँ आवश्यकता है? क्या महादरिद्री जीव परिग्रह पाप का भाव नहीं कर सकता? वास्तविक देखा जाय तो पुण्य, पाप एवं धर्म के लिये परिणाम ही कारण है, जो बाह्य वस्तु के बिना भी होते रहते हैं। जैसे तन्दुलमत्स्य, सातवें नरक में जानेवाले महामत्स्य के समान पाप किये बिना ही सातवें नरक में चला जाता है। विविक्तात्म-विलोकिनः यह श्लोकांश विशेष महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि शुद्धात्मा के अनुभवी जीव को प्रत्याख्यान होता है, अन्य जीव को नहीं। सूक्ष्मता से जिनवाणी पढ़ने के बाद प्रत्येक आत्मार्थी को यह सहज समझ में आना चाहिए कि आत्मानुभव के बिना किसी को न धर्म हुआ है, न होगा और न किसी को हो रहा है। प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है । समयसार गाथा ३४ तथा उसकी टीका में ज्ञान को ही प्रत्याख्यान कहा है। इसलिए प्रत्याख्यान को इस गाथा तथा टीका से भी समझना उपयोगी है। नियमसार के निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार का भी अध्ययन अवश्य करें। कायोत्सर्ग का स्वरूप - ज्ञात्वा योऽ चेतनं कायं नश्वरं कर्म-निर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः ।।२४२।। अन्वय :- यः (योगी) कायं अचेतनं नश्वरं (च) कर्म-निर्मितं ज्ञात्वा तस्य कार्ये न वर्तते सः कायोत्सर्गं करोति।। सरलार्थ :- काय अर्थात् शरीर को अचेतन, नाशवान एवं कर्म से उत्पन्न जानकर उस शरीर के कार्य में मुनिराज प्रवृत्त नहीं होते, अर्थात् शरीर का कर्ता अपने को नहीं मानते (केवल ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं) इस अकर्तापन को ही कायोत्सर्ग कहते हैं। ____भावार्थ :- अभ्यन्तर तपों के मुख्य छह भेद हैं, उनमें व्युत्सर्ग तप पाँचवें क्रमांक का है। व्युत्सर्ग तप से श्रेष्ठ मात्र ध्यानतप ही है। व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैं १. बाह्य उपधिव्युत्सर्ग और २. अभ्यंतर उपधि-व्यत्सर्ग । व्यत्सर्ग शब्द का अर्थ त्याग है। उपधि शब्द का अर्थ परिग्रह है। बाह्य उपधि/परिग्रह के दस भेद हैं और अन्तरंग उपधि के चौदह भेद हैं, उनमें मिथ्यात्व उपधि/परिग्रह प्रथम क्रमांक का है। अतः मिथ्यात्वरूप उपधि के त्याग बिना कोई धर्म किसी को होता ही नहीं। इसलिए मिथ्यात्व के त्याग करने का बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ/प्रयास प्रथम करना चाहिए। मिथ्यात्व को छोडे बिना कषाय का त्याग भी नहीं हो सकता। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/163]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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