SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवर अधिकार रत्नत्रयमयं शुद्धं चेतनं चेतनात्मकम्। विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवजैः स्तूयते स्तवः ।।२३८।। अन्वय :- (साधवः) चेतनात्मकं रत्नत्रयमयं शुद्धं विविक्तं चेतनं नित्यं स्तुवतः स्तवजैः स्तवः स्तूयते। सरलार्थ :- निजशुद्धात्म तत्त्व में लीन मुनिराज चेतन गुण विशिष्ट, रत्नत्रयमय और कर्मरूपी कलंक से रहित शुद्ध चेतन द्रव्य की जो नित्य स्तुति करते हैं, उस स्तुति को स्तव-मर्मज्ञों ने स्तव कहा है। भावार्थ :- प्रश्न :- निजशुद्धात्म तत्त्व में लीन मुनिराज शब्द श्लोक में है नहीं; आपने अपनी तरफ से क्यों जोडा है? उत्तर :- सामायिक आदि छह आवश्यक कार्य तो मुनिराज के ही होते हैं, यह तो आप भी आगमानुसार जानते ही हैं। जैन साधु होते हैं, वे सर्व आत्मध्यान में लीनता रखनेवाले ही होते हैं। अतः हमने प्रकरण के अनुसार निज शुद्धात्मतत्त्व में लीन मुनिराज यह वाक्यांश जोड दिया है। दूसरी बात स्वयं ग्रंथकार ने सामायिक के स्वरूप का कथन करते हुए आत्मतत्त्व-निविष्टस्य यह विशेषण मुनिराज के लिये लगाया ही है। प्रश्न :- जब मनिराज स्तवरूप क्रिया करते हैं. तब तो वे ध्यान से रहित शुभोपयोग अवस्था में प्रवृत्ति करते हैं । आत्मलीन शुद्धोपयोगमय अवस्था तो अप्रमत्तविरत गुणस्थान की है। उत्तर :- आपका प्रश्न एकदम सही एवं शास्त्रानुकूल ही है। हम यही कहना चाहते हैं। जो पहले शुद्धोपयोग में थे अब शुद्धोपयोग के लिये ही स्तवरूप शुभक्रिया में संलग्न हो गये हैं और अल्पकाल में ही शुद्धोपयोगी बननेवाले हैं। यही सच्चे साधु/मुनिराज का स्वरूप है। इसका स्पष्ट अर्थ यही हुआ कि शुद्धोपयोग मुनिराज का वास्तविक स्वरूप है और जब शुद्धोपयोगरूप अवस्था में रहने के लिये असमर्थ होते हैं, तब कर्मोदय के निमित्त से और पर्यायगत योग्यतानुसार शुभोपयोगमय सामायिकादि शुभ षड् आवश्यक क्रिया में जुड़ जाते हैं। वन्दना का स्वरूप - पवित्र- दर्शन- ज्ञान- चारित्रमयमुत्तमम् । आत्मानं वन्द्यमानस्य वन्दनाकथि कोविदः ।।२३९।। अन्वय :- वन्द्यमानस्य पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयं उत्तमं आत्मानं (योगिनः) कोविदैः वन्दना अकथि। सरलार्थ (१):- मुनिराज जब पवित्र अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को प्राप्त शुद्धात्मा को नमस्कार करते हैं, तब उस नमस्कार करनेरूप शुभक्रिया और शुभ परिणाम को विज्ञ/तत्त्वज्ञ पुरुष (व्यवहार से) वन्दना कहते हैं। सरलार्थ (२) :- जो पुरुष पवित्र दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप उत्तम आत्मा की वन्दना [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/161]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy