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________________ संवर अधिकार १४९ सकते । और भी कितने ही दोष इस सर्वथा अनित्य (क्षणिकैकान्त) की मान्यता में उत्पन्न होते हैं, जिनकी जानकारी के लिये स्वामी समन्तभद्र के देवागम और उसकी अष्टशती, अष्टसहस्री आदि टीकाओं को देखना चाहिए। जीव औदयिक भावों के द्वारा कर्म का कर्ता एवं भोक्ता - चेतनः कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् । न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये ।।२१७।। अन्वय :- अयं चेतनः औदयिकैः भावैः (कर्म) कुरुते (च) भुङ्क्ते । तदत्यये (तस्य औदयिकभावस्य अत्यये) किंचित् कर्म न विधत्ते वा न भुङ्क्ते। सरलार्थ :- यह चेतन अर्थात् जीव औदयिक भावों के द्वारा अर्थात् कर्मों के उदय का निमित्त पाकर उत्पन्न होनेवाले परिणामों के सहयोग से कर्म करता है और उसका फल भोगता है। औदयिकभावों का अभाव होने पर वह कोई कर्म नहीं करता और कोई फल नहीं भोगता है। भावार्थ :- यह चेतन आत्मा, किसके द्वारा अचेतन कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता है - यह एक प्रश्न है; जिसके समाधानार्थ ही इस श्लोक में बतलाया है कि जीव अपने मोह-राग-द्वेषरूप औदयिक भावों के द्वारा/उनके निमित्त से ही व्यवहार से कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता कहा जाता है। औदयिक भावों का अभाव हो जाने पर यह जीव न कोई कर्म करता है और न किसी कर्म के फल को भोगता है। जीव का इंद्रिय-विषय कुछ नहीं करते - पञ्चाक्षविषया: किंचित् नास्य कुर्वन्त्यचेतनाः। मन्यते स विकल्पेन सुखदा दुःखदा मम ।।२१८।। अन्वय :- अचेतना: पञ्च-अक्ष-विषयाः अस्य (चेतनस्य) किंचित् (अपि उपकारं अपकारं) न कुर्वन्ति । सः (चेतनः) विकल्पेन (तान् विषयान्) मम सुखदा: दुःखदाः इति मन्यते।। सरलार्थ :- पाँचों इन्द्रियों के स्पर्शादि विषय, जो कि अचेतन हैं, इस आत्मा का कुछ भी उपकार या अपकार नहीं करते। आत्मा विकल्प बुद्धि से/भ्रमवश उन्हें अपने सुखदाता तथा दुःखदाता मानता है। भावार्थ :- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। इनके विषय क्रमशः स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द हैं। ये पाँचों इंद्रिय-विषय चेतनारहित जड़ हैं, मूर्तिक हैं और वे चेतनामय अमूर्तिक आत्मा का कुछ भी उपकार या अपकार नहीं करते हैं; फिर भी यह आत्मा विकल्प से/भ्रान्तबुद्धि से इन्हें अपने सुख-दुःख का दाता मानता है। एक जीव अन्य जीव का अथवा पुद्गलादि का कर्ता-हर्ता नहीं है और पुद्गलादि द्रव्य जीवादि का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं हैं - इस विषय को ग्रंथकार अनेक स्थानों पर पुनः पुनः बताते [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/149]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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