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________________ १४२ योगसार-प्राभृत स्वजनादि पर राग और शत्रुओं पर द्वेष करना कैसे उचित होगा? क्योंकि ये स्वजनादि और शत्रु मेरे चेतन आत्मा का उपकार अथवा अपकार करते ही नहीं। भावार्थ :- लौकिक जीवन में लौकिक जन शरीर पर उपकार करनेवालों को मित्र और शरीर पर अपकार करनेवालों को शत्रु मानते हैं; क्योंकि वे शरीर को आत्मा मानते हैं। यहाँ अलौकिक जीवन की चर्चा है, इसलिए सम्यग्दृष्टि साधक आदि की मान्यता लौकिकजनों से विपरीत होना स्वाभाविक है। वे सोचते हैं कि जब जन्म से साथ रहनेवाला यह शरीर भी मेरा नहीं है तो इस शरीर पर किये गये उपकार के बारे में सोचना निरर्थक है। मैं तो चेतन आत्मा अनादिअनंत, अनंतगुणों का गोदाम सुखमय हूँ, मात्र-जानना ही मेरा काम है। शरीर जड़ होने के कारण किसी जीव को शत्रु अथवा किसी को मित्र मानकर उनसे राग-द्वेष करना विवेकी जीव को निरर्थक लगता है। आचार्य पूज्यपाद ने समाधिशतक ग्रंथ के श्लोक ४६ में यही भाव प्रगट किया है - अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः। क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः॥ श्लोकार्थ - ये शरीरादि दृश्यपदार्थ चेतनारहित जड़ हैं और चैतन्यरस आत्मा इन्द्रिय-अगोचर है, इसलिए मैं किसपर द्वेष करूँ ? और किसपर राग करूँ। अत: मैं मध्यस्थ होता हूँ। इसप्रकार अंतरात्मा विचार करता है। अमूर्त आत्माओं पर अपकार और उपकार कैसे? पश्याम्यचेतनं गात्रं यतो न पुनरात्मनः। निग्रहानुग्रहौ तेषां ततोऽ हं विदधे कथम् ।।२०४।। अन्वय :- यतः (अहं शत्रु-स्वजनादीनां) अचेतनं गात्रं पश्यामि ,पुनः (तेषाम्) आत्मनः न (पश्यामि), ततः अहं तेषां (स्व-परजनानां) निग्रह-अनुग्रहौ कथं विदधे? सरलार्थ :- क्योंकि मैं उन शत्रु-मित्रादि के अचेतनस्वरूप शरीर को तो देखता हूँ; परन्तु उनकी आत्माओं को देख नहीं पाता, इसलिए मैं उनका अपकार अथवा उपकार कैसे करूँ? अर्थात् मैं किसी का अच्छा अथवा बुरा कर ही नहीं सकता, यह निर्णय है। __भावार्थ :- ज्ञानी जीव अपने जीवन में समताभाव बना रहे, ऐसा विचार करता रहता है और उसके लिये तत्त्व का मजबूत आधार अवश्य लेता है। अज्ञानी जिनको भ्रम से शत्रु-स्वजनादिक मानता है, उसकी इस मिथ्या मान्यता की व्यर्थता को ज्ञानी स्पष्ट जानते हैं । अज्ञानी जिन आत्माओं का अपकार-उपकार करना चाहता है, उनको वह देख ही नहीं सकता तो अपकार-उपकार कैसे कर सकेगा? अतः इन विकल्पों से अतीत होकर मध्यस्थ होना ही श्रेयस्कर है। आचार्य कुंदकुंद ने मोक्षपाहुड गाथा २९ में बताया है - [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/142]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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