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________________ योगसार प्राभृत सरलार्थ : :- कषाय अर्थात् मोह से आकुलित जीव दुःखी होता है और दुःखी जीव दुःख मिटाने की भावना से परद्रव्य में प्रवृत्त होता है। परद्रव्य में प्रवृत्ति के कारण ही जीव का आत्मज्ञान नष्ट होता है; इसतरह मोह ही आत्मज्ञान के नाश का कारण है। भावार्थ : - मोह के कारण ही अज्ञानी जीव अनादिकाल से संसार में परद्रव्य से सुख मिलेगा, इस मिथ्या मान्यता से ही दुःखी है। यह मिथ्या मान्यता जितनी दृढ रहती है, उतनी मात्रा में जीव दुःखी रहता है । स्वयं के सुखमय स्वरूप को नहीं मानना ही मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व का नाश तो यथार्थ मान्यता से होता है । इसलिये मैं स्वयं सुखस्वरूप हूँ; इस मान्यता को स्वीकार करना चाहिए । अध्यात्म शास्त्र ही नहीं, चारों अनुयोगों का मूल प्रयोजन आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना ही है । आत्मबोध के अभाव से मिथ्यात्ववर्धन १३८ - प्रहीण - स्वात्म - बोधस्य मिथ्यात्वं वर्धते यतः । कारणं कर्मबन्धस्य कषायस्त्यज्यते ततः । । १९५ ।। अन्वय :- यत: प्रहीण - स्व- आत्म-बोधस्य कर्म-बन्धस्य कारणं मिथ्यात्वं वर्धते, तत: कषाय: त्यज्यते । सरलार्थ :- जिसका स्वात्मज्ञान विनष्ट होता है, उसका मिथ्यात्व बढ़ता रहता है और मिथ्यात्व से ही ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का दुःखदायक बन्ध होता है । अतः सुख-प्राप्ति के लिये मोह काही त्याग करना चाहिए । भावार्थ :- मोह के नाश के लिये आचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार की गाथा ८० में उपाय बताया है - जो जाणदि अरहन्तं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।॥ • जो अरहन्त को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह अपने आत्मा को गाथार्थ :जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है । इस उपाय का अवलम्बन करना प्रत्येक संज्ञी जीव को और उनमें भी मनुष्य को तो सहज साध्य है । कषाय-क्षपण में समर्थ जीव का स्वरूप - निष्कषायो निरारम्भः स्वान्य- द्रव्यविवेचकः । धर्माधर्म-निराकाङ्क्षो लोकाचार - निरुत्सुकः ।।१९६।। विशुद्धदर्शन - ज्ञान- चारित्रमयमुज्वलम् । यो ध्यायत्यात्मनात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ । । १९७ ।। अन्वय : - निष्कषायः, निरारम्भः, स्व-अन्य- द्रव्यविवेचकः, धर्म-अधर्म-निराकांक्षः, लोकाचार-निरुत्सुकः यः विशुद्ध-दर्शन-ज्ञान- चारित्रमयं उज्वलं आत्मानं आत्मना ध्यायति असौ कषायं क्षपयति । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/138]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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