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________________ १३० योगसार-प्राभृत सरलार्थ :- इसलिए दुःख से भयभीत ज्ञानवान जीव को मिथ्यात्व, कषायादि का त्याग करना चाहिए। मिथ्यात्वादि के त्याग से पुण्य-पापरूप दुःखद कर्मों का नाश होता है और कर्मों के विनाश से सहज ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। भावार्थ :- जो जीव दुःखों से डरते हैं, उन ज्ञानी-जनों को कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व, क्रोधादि कषायों तथा हास्यादि नोकषायों का त्याग करना चाहिए । उनको त्यागने से पिछला कर्मबन्धन टूटेगा तथा नये कर्म का बन्धन नहीं होगा। ऐसा होने से मुक्ति का संगम सहज ही प्राप्त होगा, जो स्वात्मोत्थित, स्वाधीन, परनिरपेक्ष, अतीन्द्रिय, अनन्त, अविनाशी और निर्विकार उस परम सुख का कारण है, जिसके समान कोई भी सुख संसार में नहीं पाया जाता । इसी से स्वामी समन्तभद्र ने ऐसे सुखी महात्मा को स्वयम्भूस्तोत्र में तीर्थंकर मुनिसुव्रत के स्तोत्र में अभवदभवसौख्यवान् भवान् वाक्य के द्वारा अभव-सौख्यवान् अर्थात् मोक्ष-सुखसंपन्न बतलाया है। रागादि सहित जीव के शुभाशुभ परिणाम - सन्ति रागादयो यस्य सचित्ताचित्त-वस्तुषु ।। प्रशस्तो वाऽप्रशस्तो वा परिणामोऽस्य जायते ।।१८१।। अन्वय :- यस्य (जीवस्य) सचित्त-अचित्त-वस्तुषु रागादयः सन्ति; अस्य प्रशस्त: वा अप्रशस्त: परिणाम: जायते। सरलार्थ :- जिस जीव के चेतन-अचेतन वस्तुओं में राग-द्वेष-मोह भाव होते हैं, उसके प्रशस्त/शुभ, अप्रशस्त/अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं। भावार्थ :- इस श्लोक के अर्थ से यह विषय अत्यन्त स्पष्ट होता है कि पुण्य एवं पाप परिणाम के जनक अर्थात् उत्पादकरूप पिता राग-द्वेष-मोहरूप एक ही परिणाम है । जिसका पिता एक हो, वे दोनों आपस में भाई-भाई हो जाते हैं। पिता मोह है इसलिए उसके पुत्र, पुण्य और पाप दोनों आपस में भाई-भाई हो गये । अतः आकुलतामय पुण्य व पाप दोनों संसार एवं संसारभ्रमण के कारण ही हैं। इन दोनों में से पुण्य को धर्ममय मानना ही मिथ्यात्व है। समयसार कलश १०१ में यह विषय आया है, अत: उसे भी अवश्य देखें। पुण्य-पाप के कारण का परिचय - प्रशस्तो भण्यते तत्र पुण्यं पापं पुनः परः। द्वयं पौद्गलिकं मूर्तं सुख-दुःख-वितारकम् ।।१८२।। अन्वय :- तत्र प्रशस्तः पुण्यं, पुनः परः पापं भण्यते । द्वयं पौद्गलिकं, मूर्त, सुख-दुःखवितारकं (च भवति)। सरलार्थ :- उन दो प्रकार के परिणामों में प्रशस्त परिणाम को पुण्य और अप्रशस्त परिणाम को पाप कहते हैं। ये दोनों पुण्य-पापरूप परिणाम पौद्गलिक हैं, मूर्तिक हैं और क्रमशः सांसारिक सुख [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/130]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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