SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ योगसार-प्राभृत मोह-राग-द्वेष का प्रयोग हो तो मोह का अर्थ दर्शनमोह और राग-द्वेष का अर्थ चारित्रमोह लेना चाहिए। नवीन कर्मबन्ध में मात्र औदयिक मोह भाव ही कारण है अन्य कोई कारण नहीं। प्रथम गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान पर्यंत जीव राग-द्वेष से सहित होने से कर्मबंध करता है और उपरिम गुणस्थानवर्ती सर्व जीव वीतरागी होने से नवीन बंध रहित हैं। अरहंत अवस्था में योग की क्रिया होने पर भी किंचित् भी बंध नहीं होता। ज्ञानार्णव ग्रंथ में भी कहा है - “रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागी विमुञ्चति । जीवो जिनोपदेशोऽयं संक्षेपाबन्धमोक्षयोः ।। श्लोकार्थ :- राग सहित जीव कर्मों को बांधता है और राग रहित/वीतरागी जीव कर्मों को छोड़ता है। बंध और मोक्ष संबंधी जिनेन्द्र भगवान का संक्षेप में इतना ही उपदेश है।" यही भाव समयसार गाथा १५० में भी आया है। उदाहरणों से बन्ध का स्पष्टीकरण - सचित्ताचित्त-मिश्राणां कुर्वाणोऽपि निषूदनम् । रजोभिर्लिप्यते रूक्षो न तन्मध्ये चरन् यथा ।।१५४।। विदधानो विचित्राणां द्रव्याणां विनिपातनम् । रागद्वेषद्वयापेतो नैनोभिर्बध्यते तथा ।।१५५।। अन्वय :- यथा रूक्षः (शरीरी) तन्मध्ये (रजस: मध्ये) चरन् सचित्त-अचित्त-मिश्राणां (च) निषूदनं कुर्वाणः अपि रजोभिः न लिप्यते। तथा राग-द्वेष-द्वयापेतः (जीव:) सचित्त-अचित्त-मिश्राणां विचित्राणां द्रव्याणां विनिपातनं विदधानः (अपि) एनोभिः न बध्यते । सरलार्थ:- जिसप्रकार चिकनाई से रहित रूक्ष शरीर का धारक जीव धलि के मध्य में विचरता मिश्र पदार्थों का छेदन-भेदनादि करता हुआ भी रज अर्थात् धुलि से लिप्त नहीं होता। उसीप्रकार राग-द्वेषरूप दोनों विकारी भावों से रहित हुआ जीव नाना प्रकार के चेतन-अचेतन तथा मिश्र पदार्थों के मध्य में विचरता हुआ और उनका छेदन-भेदनादिरूप उपघात करता हुआ भी कर्मों से बन्ध को प्राप्त नहीं होता। भावार्थ :- पिछले श्लोक के अन्त में यह बतलाया है कि राग-द्वेष से रहित हुआ जीव शरीरादि की अनेक चेष्टाएँ करता हुआ भी कर्म का बन्ध नहीं करता, उसको यहाँ सचिक्कनतारहित बिलकुल रूक्ष शरीरधारी मानव के दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है। जिसप्रकार वह मानव धूलिबहुल स्थान के मध्य में विचरता हुआ और अनेक प्रकार के घात-उपघात के कार्यों को करता [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/114]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy