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________________ आस्रव अधिकार बन्ध नहीं होता अध्यवसान से ही बन्ध होता है। " मिथ्या अभिप्राय को अध्यवसान कहते हैं । इस गाथा की टीका एवं भावार्थ में विषय विशेष स्पष्ट हुआ है, उसे मूल से देखें । - भेदज्ञानी तथा मिथ्या कल्पनाओं का त्यागी ही मुक्त होता है ( शार्दूलविक्रीडित) मिथ्याज्ञान- निविष्ट-योग- जनिता: संकल्पना भूरिशः संसार - भ्रमकारिकर्म-समितेरावर्जने या क्षमाः ।। त्यज्यन्ते स्व- परान्तरं गतवता निःशेषतो येन तास्तेनात्मा विगताष्टकर्म - विकृतिः संप्राप्यते तत्त्वतः ।। १४९।। १११ अन्वय :- मिथ्याज्ञान- निविष्ट-योग- जनिता: भूरिशः संकल्पना: संसार - भ्रमणकारिकर्म-समितेः आवर्जने याः क्षमाः ताः स्व-परान्तरं गतवता येन ( योगिना) नि:शेषत: त्यज्यन्ते तेन तत्त्वत: विगत- अष्ट-कर्म- विकृति: ( यस्मात् सः) आत्मा संप्राप्यते । सरलार्थ :- ‘मिथ्याज्ञान पर आधारित योगों से उत्पन्न हुई जो बहुत-सी कल्पनाएँ/वृत्तियाँ संसार-भ्रमण करानेवाले कर्मसमूह के आस्रव में समर्थ हैं; वे स्व-पर के भेद को पूर्णतः जाननेवाले जिस योगी के द्वारा पूरी तरह त्यागी जाती हैं; उसके द्वारा वस्तुतः आठों कर्मों की विकृति से रहित शुद्ध आत्मा प्राप्त किया जाता है - कर्मों के सारे विकार से रहित विविक्त आत्मा की उपलब्धि उसी योगी को होती है, जो उक्त योगजनित कल्पनाओं एवं कर्मास्रव-मूलक वृत्तियों का पूर्णतः त्याग करता है । भावार्थ : - यह इस आस्रवाधिकार का उपसंहार - श्लोक है, जिसमें चौथे योग जनित आस्रवहेतुओं का दिग्दर्शन कराते हुए यह सूचित किया है कि मिथ्याज्ञान पर अपना आधार रखनेवाली मन-वचन-कायरूप त्रियोगों की कल्पनाएँ / प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक हैं और वे सभी संसार में इस जीव को भ्रमण करानेवाले कर्म/समूह के आस्रव में समर्थ हैं। जिस स्व-पर-भेद विज्ञानी योगी द्वारा वे सब मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ त्यागी जाती हैं; वह वास्तव में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन आठों कर्मों के विकारों से रहित अपने शुद्ध प्राप्त होता है, जिसे 'विविक्तात्मा' के रूप में ग्रन्थ के शुरू से ही उल्लेखित करते आये इसप्रकार श्लोक क्रमांक ११० से १४९ पर्यन्त ४० श्लोकों में यह तीसरा 'आस्रव-अधिकार' पूर्ण हुआ । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/111]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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