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________________ बहुत सा पाप पाप सा ही नहीं लगता १३७ 70 १३६ ये तो सोचा ही नहीं भाव भी तो एक अपराध ही है और फिर माता-पिता और गुरुजनों से तो कभी कुछ भी नहीं छिपाना चाहिए।" यह विचार कर मोहन ने कहा - "मैं तो आपके उपकार से कृतार्थ ही हो गया हूँ। मुझे बचपन में शिकार खेलने का बहुत शौक था। क्या बताऊँ गुरुजी ? मैं थोड़े ही समय में ऐसा निशानेबाज बन गया था कि मुझसे एक भी निशाना नहीं चूका होगा। न जाने कितने मूक प्राणियों के प्राण लिए होंगे मैंने । मैं सचमुच बड़ा पापी हूँ। घुड़सवारी तो ऐसी करता था कि घोड़ा भले ही दौड़ता-दौड़ता फैन डालने लगे, गिरे, पड़े या मरे - इसकी परवाह किए बिना मैं घण्टों घोड़े को दौड़ाता ही रहता। उसमें मुझे बहुत आनन्द आता था। पशु-पक्षी लड़ाने में भी मुझे भारी मजा आता। भले ही चोंचे लड़ाते समय, माथे से माथा भिड़ाते समय, उनकी हड्डियाँ टूट जायें, मरणासन्न हो जायें; तो भी मैं उनकी परवाह किए बिना ही अपना भरपूर मनोरंजन किया करता। इसीतरह और क्या-क्या कहूँ? आपके सामने कहने में शर्म आती है; पर कहे बिना प्रायाश्चित्त नहीं होगा, मेरा मन हल्का नहीं होगा। अत: कह रहा हूँ।” ____ भाई ज्ञानेशजी ! मैं जवानी के जोश में होश खो बैठा था। रूपवती कन्याओं और कुलागंनाओं के शरीर का मनमाने ढंग से शोषण करना और उन्हें रोता-बिलखता छोड़ देना तो मेरे लिए मनोरंजन का कार्य था। जबतक जागीरदारी का प्रभाव रहा; तबतक मैंने ये पाप किये, मैंने यह सोचा है कि यदि इसी स्थिति में मरण हुआ तो नरक में जन्म लेकर अनन्त दुख भोगने का दण्ड भी मेरे लिए कम ही पड़ेगा। आपने जो कुछ वर्णन किया, उससे मुझे ऐसा लगा; मानो आपने मेरे जीवन में झांक कर ही कहा है। जब आप यह जानते हैं तो इनसे छुटकारा दिलाने का उपाय भी जानते ही होंगे। वह भी बताइये न ! आप प्रायश्चित्तस्वरूप जो भी दण्ड देंगे, वह हमारे सिर माथे होगा। हम आपका यह उपकार कभी नहीं भूलेंगे।" ___ ज्ञानेश, सेठ लक्ष्मीलाल की एवं मोहन की पापपंक में आकंठ निमग्न जीवन गाथा को सुनकर बहुत दुखी हुआ। लम्बी सांस लेते हुए उसने कहा - "खैर ! कोई बात नहीं, पापी तो थोड़े-बहुत अंशों में सभी होते ही हैं। मिथ्यात्व के फल में यह नहीं होगा तो और क्या होगा ? पर तुम्हारे जीवन में पापाचरण की कुछ अति ही रही। अस्तुः जो भी हुआ, अब उसे तो भूलना ही होगा। भविष्य में पुनरावृत्ति न हो, एतदर्थ देव-गुरु के स्वरूप को समझकर तदनुसार आचरण करने की कोशिश करना। सब ठीक हो जायेगा।" मोहन एवं सेठ लक्ष्मीलाल ने नतमस्तक हो ज्ञानेश की बातों को शिरोधार्य किया और अधिकतम समय ज्ञानेश के सान्निध्य में रहने का मन बना लिया। ___ वहीं ज्ञानगोष्ठी में बैठा एक वकील सोच रहा था - "हम वकील लोगों ने सच्चाई को झठला-झठला कर अपने व्यवसाय को बदनाम तो किया ही, उसके जरिए पाँचों पापों एवं सातों व्यसनों में लिप्त बड़ेबड़े अपराधियों को उचित दण्ड दिलाने के बजाय झूठी दलीले देदेकर उन्हें दण्ड मुक्त करा कर बार-बार अपराध करने के लिए प्रोत्साहित ही किया है। उनसे बड़ी-बड़ी फीस के सौदे करके, लाखों रुपये लेकर लखपति बनने के स्वप्न साकार करने की कल्पनायें करके मन ही मन खूब प्रसन्न भी हुए हैं। इस तरह मैं पापियों को प्रोत्साहन देकर प्रसन्न हुआ हूँ। यह भी तो रौद्रध्यान है। सचमुच मैंने अपने जीवन का बहुभाग यों ही अनुचित और अशुद्ध साधनों से धनसंग्रह में बर्बाद कर दिया"
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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