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________________ ये तो सोचा ही नहीं अत: पति-पत्नी में तलाक होना, संबंध विच्छेद करना, नौकरचाकरों को बार-बार बदलते रहना, पार्टनर और पड़ोसियों से दूर भागना आदि पारिवारिक समस्याओं के समाधान नहीं हैं। ये सब अन्तिम उपाय के रूप में ही अपनाये जा सकते हैं; क्योंकि बदले में जो भी आयेगा, हो सकता उसमें वह कमी न हो, जिसके कारण आपने उस व्यक्ति को बदला है, परन्तु उसमें भी अन्य अनेक कमियाँ तो होंगी ही; क्योंकि जब संसार में कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण है ही नहीं तो फिर पूर्ण व्यक्ति मिलेगा ही कहाँ से ? पूर्ण तो केवल परमात्मा होता है, जो आपकी सेवा-चाकरी करने या आपके साथ शादी-ब्याह रचाने आयेगा नहीं। व्यक्तियों के विचार और आचरण में मेल न बैठ पाने के कारण स्पष्ट हैं। प्रथम तो समस्त संसारी प्राणियों में अपनी-अपनी स्वतंत्र चित्र-विचित्र इच्छायें होती हैं, जिन्हें पूरा करना उनका सर्वोच्च लक्ष्य होता है तथा उनके अपने भी कुछ स्वप्न होते हैं, जिन्हें वे साकार करना चाहते हैं। दूसरे, प्रत्येक संसारी व्यक्ति में क्रोध-मान-माया-लोभ एवं हास्य, रति, अरति आदि कषायों की विभिन्न जातियाँ होती हैं; कब/कौनसी कषाय किस पर हावी हो जाय - इसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। अत: किसी से भी अपने अनुकूल आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अत: जो भी/जैसा भी अपनी होनहार और पुण्य-पाप के उदयानुसार अपने सम्पर्क में आ गया है, उसे ही स्वीकृत करते हुए यथासंभव उसे ही सन्मार्ग पर लाने का एवं स्वयं में आत्मसंतोष रखने का प्रयत्न रहना चाहिए।" पति के स्थान की पूर्ति संभव नहीं ज्ञानेश का यह सन्देश सुनकर धीरे-धीरे माँ स्वयं तो सहज हुई ही, रूपश्री को भी सहज करने का प्रयत्न किया। काल की गति विचित्र होती है, वह भी धीमे-धीमे मानव को सहजता की ओर ले जाने में सहयोग करती है। अच्छी-बुरी स्मृतियाँ काल के गाल में सहज समाती जाती हैं।' ऐसा निर्णय कर माँ धैर्य धारण करने की दिशा में प्रयत्नशील हुई। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, त्यों-त्यों माँ की भाँति उसकी छोटी बेटी रूपश्री भी दुर्भाग्य के झटके झेलते हुए तत्त्वज्ञान के सहारे सहज होती चली गयी। __ कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष के चन्द्र की भाँति अपने भावों के अनुसार पाप-पुण्यकर्म भी घटते-बढ़ते और बदलते रहते हैं। एक दिन अचानक रूपश्री के नाम एक बड़ा सा ड्राफ्ट आया; जिसे देख पहले तो रूपश्री को आश्यर्च हुआ; बाद में स्मरण आया कि - ओह ! पता नहीं उन्हें क्या आभास हो गया था कि एक दिन उन्होंने और सारी बातें कहतेकहते यह भी कहा था कि "कदाचित् हम बिछुड़ गये । तुम रह गई और मैं चला गया तो तुम पैसे के लिए परेशान नहीं होगी, तुम्हें आजीविका के लिए किसी के सामने हाथ पसारने की जरूरत नहीं पड़ेगी। दूरदर्शिता की दृष्टि से ऐसी आर्थिक व्यवस्था जरूरी है जिससे संकटकाल में परिवार दूसरों का मोहताज न हो जाये, ऐसी व्यवस्था मैंने कर रखी है। यद्यपि पैसा पति के स्थान की पूर्ति तो नहीं कर सका; परन्तु पुण्ययोग से रूपश्री दीन-हीन और पराधीन होने से बच गई। अब उसने ज्ञानेश के सान्निध्य में रहकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर आत्म-साधना करने का निश्चय कर लिया।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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