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________________ ८३ 43 ये तो सोचा ही नहीं बहिन-बेटियों पर ही घट जाये और हमारे साथ भी दूसरों के द्वारा ऐसा ही व्यवहार किया जाने लगे तब हम पर क्या बीतेगी? और ऐसा होना कोई असम्भव तो है नहीं। कोई भी व्यक्ति कभी भी दुर्घटना का शिकार हो सकता है। अत: 'आत्मना प्रतिक्लानि परेसां न समाचरेत् अर्थात् जो दूसरों का व्यवहार हमें स्वयं को अच्छा न लगे, वह व्यवहार हमें दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।' रूपश्री ने अपने कौमार्य काल में, अपनी बीस बर्षीय छोटी-सी जीवन यात्रा में आस-पास रहने वाली अनेक विधवाओं की दर्दशा अपनी आँखों से देखी थी। इसकारण उसके हृदय में विधवाओं के प्रति बहुत करुणा एवं सहानुभूति की भावना थी। उसे क्या पता था कि ये दुर्दिन उसके स्वयं के जीवन में आनेवाले हैं। शादी के बाद पहली मुलाकात में ही प्रथम परिचय के दौरान ही जब रूपेश ने रागवर्द्धक प्रेमालाप करने के बजाय रूपश्री को यह समझाने की कोशिश की कि - "कल्पना करो ! कदाचित् किसी दुर्घटना से हम दोनों सदा-सदा के लिए बिछुड़ जायें, अकेले रह जायें, तो......?" ___रूपश्री रूपेश की इस अप्रिय, कर्णकटु बात पर कुछ सोचे - यह तो संभव ही नहीं था, उस समय तो वह ऐसी बात सुन भी नहीं सकी। अत: वाक्य पूरा कर पाने के पहले ही रूपेश ने रूपश्री के मुँह पर हाथ रख दिया। रूपश्री की आँखों में आँसू आ गये, वह आँसू पोछते हुए बोली - "अब कहा सो कहा, भविष्य में कभी ऐसा शब्द भी मुँह पर मत लाना। मैं तो ऐसा सुन भी नहीं सकती। ऐसे सुखद प्रसंग में आप ऐसी दु:खद बातें क्यों करते हो ? ऐसी अपशकुन की बात तुम्हारे मन में आई ही कहाँ से और कैसे ?" उदास भाव से नाराजी प्रगट करते हुए रूपश्री ने पुनः कहा - "आप ऐसी बातें करेंगे तो मैं आपसे बात ही नहीं करूंगी।" पति के स्थान की पूर्ति संभव नहीं रूपेश ने कहा - " मैंने ऐसा क्या कह दिया ? तुम बिना कारण ही रूठ गईं। अरे ! वैसे तो सब अच्छा ही होनेवाला है; परन्तु देखो रूपश्री ! - 'सौभाग्य को दुर्भाग्य में पलटते देर नहीं लगती।' अत: दूरदृष्टि से जीवन के प्रत्येक पहलू पर गंभीरता से विचार कर लेने में हर्ज ही क्या है ? अपने सोचने या कहने से दुर्घटना का क्या संबंध है ? होता तो वही है जो होना होता है। यदि हम हर परिस्थिति का सामना करने के लिए पहले से सजग व सावधान रहें तो ऐसी विषम परिस्थिति में 'किम् कर्तव्य विमूढ' नहीं होते । अत: न सही आज, पर समय रहते सचेत तो हो ही जाना चाहिए। बस इसी विकल्प से मैंने इस चर्चा को महत्त्वपूर्ण व उपयोगी समझकर छेड़ दिया। तुम्हें इतना बुरा लगेगा - ऐसा समझता तो आज न कहकर फिर कभी कह लेता। अस्तु! कोई बात नहीं। तुम इन शकुन-अपशकुन के दकियानूसी विचारों को छोड़ो और जो बातें तुम्हें अभी अच्छी लगें, वही कहो। मैं अपने शब्द वापिस लिए लेता हूँ। पर तुम्हें सदैव हिम्मत से काम लेना सीखना चाहिए और हर परिस्थिति का सामना करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए।" भयभीत नहीं होना चाहिए। ___ कोई कटु सत्य सुन सके या न सुन सके, सह सके या न सह सके, पर जो सुख-दुःख होना होता है, वह तो होकर ही रहता है। रूपश्री कुछ ही समय में उस दुर्घटना का शिकार हो गई, जिसे वह प्रथम परिचय के दिन सुन भी नहीं सकी थी। अब वे सारे दृश्य जो उन दोनों के बीच बातचीत करते घटे थे, रूपश्री की आँखों में उतर आये। रूपश्री दुर्घटना में पति को दिवंगत देख मूर्च्छित-सी हो गई, अवाक् रह गई थी। रोना चाहकर भी रो नहीं पा रही थी। उसके आँसू
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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