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________________ 36 दस विचित्र संयोग : पुण्य-पाप का धनश्री की छोटी बहिन रूपश्री रूप लावण्य में अद्वितीय थी। मृगी के नयनों की भाँति बड़े-बड़े काले-कजरारे नेत्र, शुक के समान नुकीली नाक, जवाकुसुम जैसे रक्तवर्ण अधर-ओष्ठ, मोतियों-सी श्वेत दन्तपंक्ति, इकहरी कंचनवर्णी काया, नितम्बों तक लटकती काली-घंघराली केशराशि, निष्कलंक चमकता-दमकता मुख-मण्डल, जिसे देख शशि भी शरमा जाये। जहाँ एक ओर रूपश्री का बाह्य व्यक्तित्व इतना मनमोहक था. वहीं दूसरी ओर वह मानसिक दृष्टि से बहुत कमजोर थी। किसी अज्ञात आशंका से वह रो पड़ती थी। यह कैसा विचित्र संयोग है पुण्य-पाप का ? यह रूप-लावण्य सचमुच कोई गर्व करने जैसी चीज नहीं है। इतना और ऐसा पुण्य तो पशु-पक्षी भी कमा लेते हैं, फुलवारियों के फूल भी कमा लेते हैं, वे भी देखने में बहुत सुन्दर और प्रिय लगते हैं; पर कितने सुखी हैं वे? बेचारी रूपश्री के बाल्यकाल से ही ऐसे पाप का उदय था कि वह बचपन में न जाने क्यों बात-बात में रो देती थी और घंटों रोया करती। रोने से उसकी आँखें लाल-लाल हो जाती, गला रुंध जाता, मुखमण्डल श्रीविहीन हो जाता। ____ माँ से उसका इस तरह रोना देखा नहीं जाता था। बेटी के दु:ख से वह भी भारी दु:खी हो जाती। पिता को पहले तो अपने काम-धंधों से ही फरसत नहीं, फिर पियक्कड और स्वभाव से ही लापरवाह भी। वह क्या समझें संतान के प्रति अपने उत्तरदायित्व को, कर्तव्य को? विचित्र संयोग : पुण्य-पाप का माँ कभी-कभी झुंझलाकर कहती - “शायद इसके भाग्य में तो रोना ही लिखा है । कैसी बड़ी-बड़ी आँखे हैं, परन्तु लगता है रो-रोकर यह अपनी आँखे और सेहत दोनों खराब कर लेगी।" ___रूपश्री का पिता अपनी पत्नी को परेशानी में देख कभी-कभार दिलासा देता हुआ कहता -“बच्चे हैं, कभी रोते हैं तो कभी हँसते हैं। बच्चों का तो स्वभाव ही ऐसा होता है। बड़ी होने पर सब ठीक हो जायेगा।" उस नादान बालिका को यह पता नहीं था कि मेरा यह रोना और दुःखी होना पूर्व पाप का फल तो है ही, नये पाप बंध का कारण भी है, रोने में जो संक्लेश होता है, जो दूसरों पर द्वेष भाव होता है, वह पाप बंध का कारण बनता है। इसप्रकार दु:ख का बीज निःसंदेह भविष्य में वट वृक्ष की तरह बड़ा होकर दु:ख के फल देता है। उस नन्ही-सी बच्ची की क्या बात कहें ? यह तो अपने को समझदार समझनेवाले हमें-तुम्हें भी पता नहीं है कि हम अनजाने में दूसरों के प्रति राग-द्वेष करके कैसे-कैसे पाप भाव करते रहते हैं। ध्यान रहे, किसी को अपने पाप भावों का पता हो या न हो, दूसरों को भी भले पता चले या न चले; पर कर्मबन्धन से कोई नहीं बच सकता। कर्म का बन्धन तो सबको अपने-अपने मोह-राग-द्वेष भावों के अनुसार होता ही है, कर्मों का और रागादि भावों का परस्पर चुम्बक और लोहे की भाँति ऐसा ही सहज सम्बन्ध है। चाहे बालक हो या वृद्ध, नर हो या नारी, पुण्य-पापकर्म तो सबको अज्ञान और कषायों के अनुसार एक जैसे ही बंधते हैं। ये किसी की उम्र का कोई लिहाज नहीं करते और न गैरसमझदार पर कृपा ही करते हैं। ये कषायों की हीनाधिकता के अनुसार समय-समय पर सबको अपना
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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