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________________ १० यदि चूक गये तो थीं, उनमें डेढ़ तो मुझे ही मिल गईं।' शेष आधी अक्कल सारी दुनिया के पास है। अज्ञानी जीवों की इसी भूलभरी मान्यता के कारण गुजरात आज भी मूर्खों को 'डेढ़ डाह्या' कहा जाता है। में अरे भाई! यह आगम सम्मत सत्य बात है कि इस भरतक्षेत्र और इस पंचमकाल में जन्म से कोई सम्यग्दृष्टि (ज्ञानी) पैदा ही नहीं होता और आठ वर्ष तक आत्मज्ञानी बनने की योग्यता का विकास नहीं हो पाता। हाँ, आठ वर्ष के बाद आज तक यदि किसी के अपने तात्त्विक विचारों में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ हो तो वे अपने हृदय पर हाथ रख सोचें, देखें, याद करें कि उसने कब अपनी भूल को स्वीकार कर अपने विचारों बदला है। अधिकांश तो ऐसे ही हैं कि जो / जहाँ / जिस जाति या कुल में जन्मा है, वह आज भी उसी मान्यता में जी रहा है, उन्हीं मान्यताओं की पुष्टि कर रहा है। बिना परीक्षा किए अपने मनमाने ढंग से माने गये कल्पित धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ माने बैठा है; बड़े-बड़े वैज्ञानिक और बुद्धिमान व्यक्ति भी धर्म के मामले में तो न जाने क्यों ? अंधविश्वासी ही हैं या फिर सम्पूर्णतः नास्तिक हैं। 'धर्म को भी परीक्षा की कसौटी पर कसा जा सकता है' - यह बात तो वे सोच ही नहीं सकते। आज जरूरत है धर्म को भी सोच-समझ कर धारण करने की, अन्यथा भविष्य में धर्म के नाम चलते ढोंग के कारण सच्चा धर्म बदनाम हो जायेगा। सच्चे धर्म को मूर्खो की मान्यता मान लिया जायेगा । पंचतंत्र में चार मूर्खो की एक कहानी आती है - वे कहते हैं? - तर्क अप्रतिष्ठित है, श्रुतियाँ भिन्न-भिन्न हैं, मुनि अनेक हैं, उनकी मान्यताओं में परस्पर मतभेद हैं, धर्म का तत्त्व कहीं गुफाओं में ही गायब हो गया है। इसलिए जिस रास्ते से महाजन जायें, बहुत लोग जायें, वही रास्ता सही रास्ता है - ऐसा सोचकर मूर्ख लोग कुमार्ग पर चल देते हैं । अतः धर्म के विषय में विवेक की बहुत जरूरत है। भीड़ के पीछे दौड़ना कोई समझदारी नहीं है। १. तर्कोऽप्रतिष्ठः, श्रुतयोर्विभिन्नः, नेको मुनिर्यस्य वच प्रमाणाँ । धर्मस्यतत्त्वं निहितं गुफायां, महाजनो येन गतः सुपन्थः ।। (६) ११ देखो, वह मारीचि, जो तद्भव मोक्षगामी, क्षायिक समकिती चक्रवर्ती भरत का पुत्र और प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का पोता था, उसने भी कोई ऐसी बड़ी भूल की थी, जिसके फल में उसे एक कोड़ा - कोड़ी सागर तक संसार के भयंकर दुःख भोगने पड़े। क्या यह विचारणीय बिन्दु नहीं है कि 'वह भूल क्या थी? जिसका उसे इतना बड़ा दण्ड मिला ? तथा वैसी ही कोई भूल हम तो नहीं कर रहे हैं?' अन्यथा हमें भी वही दण्ड भोगना होगा । यह तो अधिकांश व्यक्ति जानते ही हैं कि पाप का फल नरक है, पुण्य का फल स्वर्ग है, धर्म का फल मोक्ष है और अधर्म का फल निगोद है । संसारी जीवों का अधिकांश समय तो निगोद में एकेन्द्रिय पर्याय में ही बीतता है। भली होनहार से कदाचित् कोई जीव त्रस - पर्याय में भी आता है तो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक तो मात्र कर्मफल चेतना को ही भोगता है, वहाँ आत्महित कर सके ऐसी सामर्थ्य ही नहीं होती। संज्ञी (समनस्क) पंचेन्द्रिय मानवों में भी आत्महित के हेतु भूत सब प्रकार की अनुकूल संयोग मिलना अति दुर्लभ है। उनमें भी जिसने जिस जाति /कुल/तथा गृहीत मिथ्या मान्यता वालों के घर में जन्म ले लिया, वे उसे ही सत्य मान बैठे हैं। इस तरह पर में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व की भूल के साथ काम, भोग भोगते हुए कर्मचेतना एवं कर्मफल चेतना में ही यदि त्रस पर्याय के आठों मानव भव निकल गये तो ये जीव पुनः अनन्त काल के लिए निगोद में चले जाते हैं। सौभाग्य से हमें तत्त्व समझने लायक बुद्धि, क्षयोपशम, विशुद्धि तथा देशनालब्धि जैसे सर्व अनुकूल अवसर मिल गये हैं, अतः यह अवसर चूकने योग्य नहीं है। यदि हम ऐसा उत्तम अवसर पाकर कहीं चूक गये तो हमारी भी वही दुर्दशा होगी जो मारीचि की हुई थी। यद्यपि मारीचि भी धार्मिक प्रवृत्ति का था; परन्तु वह वीतरागी सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का पोता होते हुए भी उनका अनुयायी नहीं, बल्कि प्रतिद्वन्द्व था । वह स्वयं को तीर्थंकर से कम नहीं मानता था । इस प्रकार उसने गृहीत मिथ्यात्व के चक्कर में पड़कर सच्चे देव का अवर्णवाद प्रस्तावना
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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