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________________ हरिवंश कथा से यदिचूक गये तो को ही अपने पति के रूप में चुना था। अर्जुन के ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर और भीम द्रौपदी को (अनुज अर्जुन की पत्नी को) अपनी बहू (बेटी) जैसी पवित्र दृष्टि से देखते थे तथा अर्जुन के छोटे भ्राता नकुल और सहदेव द्रौपदी भाभी को माता के समान पूज्य मानते थे। द्रौपदी भी जेठ युधिष्ठिर एवं भीम को अपने श्वसुर पाण्डु के समान मानकर पिता तुल्य सम्मान देती थीं तथा देवर नकुल और सहदेव को पुत्रवत् मानती थी। वस्तुतः अर्जुन की पत्नी द्रौपदी पतिपरायण महासती नारी थी। राजीमती राजुल अरे, रागी क्या जाने विरागियों की बातें । वस्तुतः राजीमती (राजुल) दया की नहीं, श्रद्धा की पात्र बन गई, श्रद्धेय बन गई, पुजारिन से पूज्य बन गई। राजीमती बारात वापिस जाने के कारण आर्यिका नहीं बनी थी, बल्कि उसका स्वयं का भी राग टूट गया था, आर्यिका के व्रत लेना राजुल की मजबूरी नहीं, अहो भाग्य था। अहो भाग्य!! राजा सुमुख और वनमाला - विषयासक्त चित्तवाले व्यक्ति के ऐसे कौन से गुण हैं, जो नष्ट नहीं हो जाते। अरे! न उसमें विद्वत्ता रहती है; न मानवता; न ही अभिजात्यपना (बड़प्पन) तथा न सत्य बोलना ही उसके जीवन में संभव है। कामासक्त व्यक्ति के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। भवितव्यतानुसार ही जीवों की बुद्धि, विचार एवं व्यवसाय होता है और निमित्त आदि बाह्य कारण भी वैसे ही मिल जाते हैं। जिनकी भली होनहार होती है; उनके परिणाम परिस्थितियाँ और भावनायें बदलते देर नहीं लगती। वीरक वैश्य तो विरागी होकर दिगम्बर मुनि दीक्षा लेकर आत्मसाधना में मग्न हो ही गये। वरधर्म नामक मुनिराज का राजा सुमुख के यहाँ आहार के निमित्त से शुभागमन होने से उनके दर्शन और उपदेश का निमित्त पाकर वनमाला और सुमुख का जीवन भी बदल गया। आचार्यदेव कहते हैं कि - हे भव्य! यह मानव जन्म पाना अति दुर्लभ है जो हमें किसी पुण्य विशेष से सहज प्राप्त हो गया है। यदि इसे हमने विषयान्ध होकर यों ही विषयों में खो दिया तो समुद्र में फेंके चिन्तामणिरत्न जैसी मूर्खता ही होगी। उसे कोई भी व्यक्ति बुद्धिमान नहीं कहेगा? थोड़े से पुण्य के उदय में उलझकर यह अज्ञानी प्राणी अपने दुर्लभ मनुष्य भव रूप चिन्तामणि रत्न को संसार के भयंकर दुःख समुद्र में डुबोने का कार्य कर रहा है। मोहवश अज्ञानी को इतना भी विवेक नहीं रहता कि - यह सांसारिकसुख बाधा सहित हैं, क्षणिक हैं, इसके आदि मध्य एवं अन्त में तीनों काल दुःख ही दुःख हैं; ये पाप के बीज हैं। इस विषयानन्दी-रौद्रध्यान का फल साक्षात् नरक है: अतः उस समय रहते तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त कर इस मनुष्य जन्म में भव के अभाव का बीज बो देने में ही बुद्धिमानी है। एतदर्थ नियमित स्वाध्याय और यथायोग्य व्रत नियम-संयम के साथ ही जीवन जीने की कला का अभ्यास करना चाहिए। परमात्मा दो प्रकार के होते हैं। १. कारणपरमात्मा, २. कार्यपरमात्मा । अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख एवं अनन्तवीर्य को प्राप्त अरहंत एवं सिद्ध भगवान कार्य परमात्मा हैं, उन्होंने अपने स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभावरूप स्वचतुष्टय के सहारे घातिया-अघातिया कर्मों का अभाव करके कार्य परमात्मा का पद प्राप्त किया है। ___ हम तुम और समस्त भव्य जीव स्वभाव से कारण परमात्मा हैं। जो जीव कार्य परमात्मा के द्वारा प्राप्त जिनवाणी के रहस्य को जानकर वस्तुस्वातंत्र्य आदि सिद्धान्तों को समझकर अपने अनादिकालीन अज्ञान एवं मोहान्धकार का नाश करके आत्मानुभव कर लेते हैं, पर में हुई एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व बुद्धि को त्याग देते हैं, इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग की मिथ्याकल्पनाओं से उत्पन्न आर्तध्यान एवं विषयों में आनन्द मानने रूप रौद्रध्यान के दुष्परिणामों को जान लेते हैं; वे जीव अल्पकाल में मिथ्या (११)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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