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(बारह भावना)
झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें । तन- जीवन - यौवन अस्थिर है, क्षणभंगुर पल में मुरझायें ।। सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या? अशरण मृत-काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या? संसार महा दुखसागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासों में । मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन - कामिनी' प्रासादों में ।। मैं एकाकी एकत्व' लिये, एकत्व लिये सब ही आते। तन-धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते ।। मेरे न हुए ये, मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ । निज में पर से अन्यत्व' लिये, निज समरस पीनेवाला हूँ ।। जिसके शृंगारों में मेरा, यह महंगा जीवन घुल जाता " । अत्यन्त अशुचि' जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता ।। दिन-रात शुभाशुभ भावों में, मेरा व्यापार चला करता । मानस, वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता ।। शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल । शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल" ।। फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें। सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ।। हम छोड़ चलें यह लोक तभी, लोकान्त विराजें क्षण में जा । निज लोक हमारा वासा हो, शोकांत" बनें फिर हमको क्या ।। बोधिदुर्लभ जागे मम दुर्लभ बोधि" प्रभो! दुर्नय-तम" सत्वर " टल जावे । बस ज्ञाता दृष्टा" रह जाऊँ, मद" मत्सर" मोह विनश जावे ।। चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी । जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी ।।
अनित्य
अशरण
संसार
एकत्व
अन्यत्व
अशुचि
आसव
संवर
निर्जरा
लोक
धर्म
१. स्त्री, २. महलों में, ३. अकेला, ४. अकेलापन, ५. भिन्नपना, ६ . समतारूपी रस, ७. बर्बाद हो जाता है, ८. अपवित्र, ९. मन, १०. हृदय, ११. सम्यग्दर्शन, १२. आत्मशक्ति, १३. झरने, १४. मुक्ति में, १५. आत्मस्वभाव ही निजलोक है, १६. हमारे सभी शोकों का अन्त होना, १७. सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चरित्र, १८. खोटे नयों रूपी अंधकार, १९. शीघ्र, २०. ज्ञानदर्शनमय, २१ अभिमान, २२. डाह ।
( ४ )
चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जाये। मुरझाई ज्ञान - लता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जाये ।। सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जायेगी इच्छा ज्वाला । परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक' में घी डाला ।। तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा । अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुख की भी परिभाषा ।। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे । अत एव झुके तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे ।। स्याद्वादमयीं तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं । उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं ।। हे गुरुवर! शाश्वत सुखदर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करनेवाला है ।। जब जग विषयों' में रच-पच' कर, गाफिल निद्रा में सोता हो । अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विषकंटक बोता हो ।। हो अर्द्ध-निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों । तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिंतन करते हो ।। करते तप शैल नदी-तट पर, तरु-तल वर्षा की झड़ियों में । समता-रस-पान किया करते, सुख-दुःख दोनों की घड़ियों में ।। अन्तरज्वाला” हरती वाणी, मानो झड़ती हों फुलझड़ियाँ । भव-बन्धन तड़-तड़ टूट पड़ें, खिल जायें अन्तर की कलियाँ ।। तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियाँ । दिनरात लुटाया करते हो, सम-समर की अविनश्वर मणियाँ ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । हे निर्मल देव! तुम्हें प्रमाण, हे ज्ञान दीप आगम! प्रणाम । शान्ति-त्याग के मूर्तिमान, शिव-पथ-पंथी गुरुवर ! प्रणाम ।।
प्रश्न
१. चंदन और नैवेद्य के छन्दों को लिखकर उनका भाव अपने शब्दों में लिखिए । २. जयमाला में क्या वर्णन है ? संक्षेप में लिखें।
३. संसार भावना व संवर भावना वाले छंद लिखकर उनका भाव समझाइये।
१. अग्नि, २. सुनय, ३. संसाररूपी समुद्र, ४ दिखानेवाला, ५. पंचेन्द्रियों के विषयभोगों में, ६. लीन होकर, ७. कांटों से रहित, ८. विषय-भोगरूपी कांटे, ९. आधी रात, १०. पर्वत, ११. वृक्षों के नीचे, १२. हृदय की ज्वाला, १३. समता और शान्ति ।
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