SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था। यह इस रस की एक उत्कृष्ट कृति थी, जिसे विवेक जागृत होने पर कवि ने गोमती नदी में बहा दिया। इसके पश्चात् आपका जीवन अध्यात्ममय हो गया और उसके बाद की रचित चार रचनाएँ प्राप्त हैं - 'नाटक समयसार', बनारसीदास विलास', 'नाममाला', और 'अर्द्धकथानक'। 'नाटक समयसार' अमृतचन्द्राचार्य के कलशों का एक तरह से पद्यानुवाद है, किन्तु कवि की मौलिक सूझबूझ के कारण इसके अध्ययन में स्वतंत्र कृति-सा आनंद आता है। यह ग्रन्थराज अध्यात्म सराबोर ___ 'अर्द्धकथानक' हिन्दी भाषा का प्रथम आत्म-चरित्र है, जो कि अपने आप में एक प्रौढ़तम कृति है। इसमें कवि का ५५ वर्ष का जीवन आईने के रूप में चित्रित है। __ 'बनारसी-विलास' कवि की अनेक रचनाओं का संग्रह-ग्रन्थ है और 'नाममाला' कोष-काव्य है। ___ कवि अपनी आत्म-साधना और काव्य-साधना दोनों में ही बेजोड़ है। मोह की गहल सों अजान यहै सुरापान । कुमति की रीति गणिका को रस चखिबो ।। निर्दय है प्राण-घात करबो यहै शिकार । पर-नारी संग पर-बुद्धि को परखिबो ।। प्यार सौं पराई सौंज गहिबे की चाह चोरी। एई सातों व्यसन विडारि ब्रह्म लखिबो ।। - पण्डित बनारसीदासजी जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान करना, वेश्यागमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्री-सेवन करना - ये सात व्यसन हैं। किसी भी विषय में लवलीन होने को अर्थात् आदत को व्यसन कहते हैं। यहाँ बुरे विषय में लीन होना व्यसन कहा गया है और इसके सात भेद कहे हैं, जो जीवों में प्रमुख रूप से आकुलता पैदा करते हैं और दुराचारी बनाते हैं। वैसे राग-द्वेष और आकुलता उत्पन्न करनेवाली सभी आदतें व्यसन ही हैं। निश्चय से तो आत्मा के स्वरूप को भुला दे, वे मिथ्यात्व से युक्त राग-द्वेष परिणाम ही व्यसन हैं। १. जुआ - हार-जीत पर दृष्टि रखते हुए रुपये-पैसे या किसी प्रकार के धन से कोई भी खेल-खेलना या शर्त लगाकर कोई काम करना या दाव लगाकर अधिक लाभ की आशा या हानि का भय होना द्रव्य-जुआ है। शुभ (पुण्योदय) में जीत (हर्ष) तथा अशुभ (पापोदय) में हार (विषाद) मानना भाव-जुआ है। इस भाव (मान्यता) का त्याग ही सच्चा जुआ या त्याग है। २. मांस खाना - मार कर या मरे हुए जीवों का कलेवर खाने में आसक्त रहना एवं भक्षण करना द्रव्य-मांस खाना व्यसन है। देह में मगन रहना अर्थात् शरीर के पुष्ट होने पर अपना (आत्मा का) हित एवं शरीर के दुबले होने पर अपना (आत्मा का) अहित मानना भाव-मांस खाना व्यसन है। (२७) सप्त व्यसन जुआ आमिष मदिरा दारी, आखेटक चोरी परनारी। एही सात व्यसन दुखदाई, दुरित मूल दुर्गति के भाई ।। दर्वित ये सातों व्यसन, दुराचार दुखधाम । भावित अंतर-कल्पना, मृषा मोह परिणाम ।। अशुभ में हार शुभ में जीत यहै द्यूत कर्म । देह की मगनताई, यहै मांस भखिबो ।। (२६)
SR No.008387
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size142 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy