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________________ १२९ १२८ विदाई की बेला/१६ यदि सल्लेखनाधारक ने तत्त्वाभ्यास करके जिनागम के परिप्रेक्ष्य में समाधिपूर्वक जीना सीख लिया है, वैर-विरोध के दुष्परिणामों को जान लिया है तथा अपने अभाव में अपने स्नेही और मोही माता-पिता एवं स्त्री-पुत्रादि को होने वाले कल्पनातीत दुःखों का अहसास कर लिया है, तब तो उसे संबोधन का भाव और भी अधिक जागृत होता है। ताकि अन्तिम विदाई की बेला में कोई आँसू न बहाये, रोये नहीं, दुःखी न हो। वस्तुतः ज्ञानी पूर्ण निर्विकल्प होकर ही, सभी से मोह-ममत्व त्याग कर ही अपने प्राण त्यागना चाहता है। अतः वह सबको समझाता है।" इन तथ्यों से सुपरिचित विवेकी ने अपने सभी कुटुम्बियों एवं संबंधियों को संबोधित करके लौकिक संबंधों से भेदज्ञान कराते हुए कहा - "सभी रिश्ते शरीर के रिश्ते हैं। जब तक यह शरीर है, तब तक आप के सब रिश्तेदार हैं, शरीर बदलते ही सब रिश्ते बदल जायेंगे। शरीर से ही इन रिश्तों की पहचान हैं। बताओ! आत्माओं को कौन पहचानता है? जब किसी ने किसी के आत्मा को कभी देखा ही नहीं है तो उसे पहचाने भी कैसे?" विवेकी ने आगे कहा – “इस शरीर के भाई-बंधुओ! बेटे-बेटियो! व कुटुम्बीजनो! मेरा आप सबसे कोई भी संबंध नहीं हैं। ये सब रिश्ते जिसके साथ थे, उससे ही जब मैंने संबंध विच्छेद कर लिया है तो अब आपसे भी मेरा क्या संबंध? जब देह ही अपनी नहीं है तो देह के रिश्तेदार अपने कैसे हो सकते हैं? अतः मुझसे मोह ममता छोड़ो, मैं भी इस दुखदाई मोह से मुँह मोड़कर सबसे संबंध छोड़ना चाहता हूँ। ऐसा किए बिना सुखी होने को अन्य कोई उपाय नहीं है। अतः सब ऐसा विचार करें कि - 'मैं शरीर नहीं, मैं तो एक अखण्ड ज्ञानानन्द स्वभावी अनादि-अनन्त एवं अमूर्तिक आत्मा हूँ तथा यह विदाई की बेला/१६ शरीर मुझसे सर्वथा भिन्न जड़स्वभावी, सादि-सान्त, मूर्तिक पुद्गल है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है।' जिसे आपने कभी न देखा, न पहचाना, उससे मोह कैसा? अतः आप मुझसे राग-द्वेष का भाव छोड़ें । मैं भी आप सबके प्रति हुए मोह एवं रागद्वेष को छोड़ना चाहता हूँ। आप लोग मेरे महाप्रयाण के बाद, खेदखिन्न न हो तथा आत्मा-परमात्मा की साधना-आराधना में सदा तत्पर रहें। बस, यही मेरा आपको संदेश है, उपदेश है, आदेश है और आशीर्वाद है। इसे जिस रूप में चाहें ग्रहण करें। पर इस कल्याण के मार्ग में अवश्य लगें। इस स्वर्ण अवसर को यों ही न जाने दें।" विवेकी की इस आदर्श समाधि एवं उत्कृष्ट भावना से जहाँ एक ओर मुझे भारी प्रसन्नता थी, वहीं कुछ-कुछ ईर्ष्या भी...। मैं भावुक हो उठा था। मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई थी, जिन्हें पोंछना कठिन हो रहा था। मैं असमंजस में था, सोच रहा था, लोग क्या कहेंगे? यह कैसे गुरुजी हैं? यदि किसी ने कह दिया कि - "क्या सारा ज्ञान दूसरों को समझाने के लिए ही होता है?.... "तो मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? __ मैंने अपने मन को झकझोरते हुए कहा – “कहो गुरु कैसी रही? बड़े गुरु बनते थे, ज्ञानी होने का दंभ भरते, यह क्या हुआ? नारियों की भाँति भावुक हो ये आंसू क्यों बहा रहे हो? कहाँ गया वह तुम्हारा तत्त्वज्ञान? तुम्हारे ये आँसू देख जब कोई कहेगा कि 'वाह भाई वाह!! गुरु तो गुरु ही रह गया, चेला महागुरु बन गया' तो तब तुम क्या कहोगे...?" मेरे मन के ही दूसरे कोने से आवाज आई - “कहने दो, कहने दो, कोई बात नहीं, हम भी कह देंगे, आखिर शिष्य किसका है?" जिस तरह पुत्र के आगे बढ़ने से पिता प्रसन्न ही होता ईष्यालुं नहीं; उसी तरह शिष्य भी यदि गुरु से आगे बढ़ता है तो गुरु भी प्रसन्न ही होते हैं (69)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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