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________________ १२३ १२२ विदाई की बेला/१६ यद्यपि यह सत्य है कि विवेकी के परिवारजन उसकी सेवा करने की भावना रखते हैं, पर कोरी सद्भावना व सहानुभूति से थोड़े ही किसी के कष्ट दूर हो जाते हैं। कष्ट कम करने के लिए तो भरपूर सहयोग एवं सेवा की जरूरत होती है। जो उसे बिलकुल नहीं मिल रही है। फिर भी उसके विचार कितने उच्च हैं, कितने उदार हैं, कितना गंभीर है उसका वह चिन्तन! ___ जब मैंने उसके प्रति अपनाये गये पारिवारिक व्यक्तियों के व्यवहार पर असंतोष प्रगट किया तब उसने उनकी ओर से स्पष्टीकरण करते हुए अपनी जिस महानता का परिचय दिया, वह वस्तुतः जगत को अनुकरणीय है।" उसने कहा - "वे भी बेचारे क्या करें? वे मेरी सेवा में कितने भी सजग व सावधान क्यों न रहें? पर मेरी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति समय पर कर पाना कोई सहज कार्य तो नहीं है। यदि दस-बीस दिन की बात हो तब तो घर के सब कार्यों को भी गौण किया जा सकता है और चौबीसों घण्टे भी सेवा में खड़ा रहा जा सकता है। पर यह बीमारी ऐसी नहीं है, यह तो अनिश्चितकालीन बीमारी है, लम्बे काल तक चलने वाली बीमारी है, इस कारण परिवारजनों की सेवा करने की हार्दिक भावना होने पर भी सेवा में शिथिलता आना अस्वाभाविक नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि रोगी की परिचर्या सेवा-सुश्रुषा के योग्य साधन सुविधाओं की उपलब्धि-अनुपलब्धि भी तो उसके पुण्यपाप के उदय पर निर्भर करती है। अतएव भी किसी को दोषी ठहराना उचित नहीं है। ___ मैं स्वयं ही इस मामले में अधिक भाग्यशाली नहीं हूँ। देखो न! मेरी पत्नी तो मुझे छोड़कर पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी है। जहाँ तक बेटेबहुओं और पोते-पोतियों की बात है, सो भाई! उन बेचारों पर पहले से ही काम का इतना अधिक बोझ है कि वे उससे ही नहीं निबट पाते । मेरी विदाई की बेला/१६ सेवा में अटकाने का अर्थ है उनके भविष्य को अंधकारमय बना देना, पढ़ाई-लिखाई व आजीविका से वंचित करना। अपनी जरा-सी सुखसुविधा के लिए भला उन्हें इतने बड़े खतरे में डालना क्या उचित है? बेटों ने नया-नया काम डाला है। इस कारण उस पर उन्हें पूरा-पूरा ध्यान देना अत्यावश्यक है। अतः वे चाहें भी तो मैं स्वयं नहीं चाहूँगा कि वे मेरे पास ही बैठे रहें। वे बैठकर करेंगे भी क्या? मेरा दुःख तो मुझे ही सहना होगा, वे मेरा दुःख थोड़े ही बाँट लेंगे? और मुझे ऐसा दुःख है भी क्या? अपनी भूल के कारण इससे भी अनन्तगुणे दुःख मैंने अनन्तबार सहे हैं। यदि वे अपनी व्यावसायिक उन्नति के लिए अथवा अपने ऐशोआराम के लिए भी मेरी उपेक्षा करते, तब भी मुझे कोई खेद या अफसोस नहीं होता; क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि ये लोग तो निमित्त मात्र हैं, मेरा सुख-दुःख तो मेरी करनी का फल है, उससे इनका क्या संबंध? फिर उन्होंने तो अपनी शक्ति या सामर्थ्य के अनुसार नौकर आदि की व्यवस्था तो कर ही रखी है न? अब मेरे भाग्य से नौकर भी अच्छा नहीं मिला, तो इसमें उन बेचारों का क्या दोष? नौकर दैनिक आवश्यक नित्यकर्म ही तो निबटा सकता है। कभीकभी तो जब वह घंटों तक को इधर-उधर हो जाता है, तब तो मैं पानी पीने एवं पेशाब करने को भी मुँहताज हो जाता हूँ। देखो न! वह गिलास हाथ से गिरकर टूट गया है। पर वह भी कब तक बाँध कर बैठा रहे? बैठाबैठा वह ऊब भी तो जाता होगा। इस कारण मेरी आँख झपकते ही वह थोड़ी देर को खिसक जाता है। ___पर कोई बात नहीं, यह तो बहुत अच्छा है, घंटे दो घंटे की भूखप्यास से क्या फर्क पड़ता है? नरकों में ऐसी प्यास व भूख है कि समुद्र भर पानी पीने पर भी प्यास नहीं बुझती और पानी की एक बूंद मिलती नहीं। (66)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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