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________________ ११८ विदाई की बेला/१६ आगे बात बदलते हुए उसने पूछा - "किसका पत्र है और उसमें क्या लिखा है? किसको क्या हो गया है। जिसकी चिन्ता में तुम इतने भावुक हो उठे? सौभाग्य से अब तुम्हें घर-परिवार की कोई चिन्ता नहीं रही तो जगत का भला करने की धुन सवार हो गई और वह भी इस स्तर पर कि नींद ही हराम हो जाये । मियांजी यों ही शहर के अंदेशे में दुबले हुए जा रहे हैं, यह बात अपनी समझ में नहीं आती। भला यह भी कोई बात हुई? ____ मैंने उसकी पहली बात की सुनी-अनसुनी करते हुए उसके दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहा - "विवेकी को पक्षाघात हो गया है, लकवा लग गया है - ऐसा सदासुखी ने अपने पत्र में लिखा है।" पत्नी ने अफसोस प्रगट करते हुए कहा - "अरे! यह तो बहुत बुरा हुआ। बिचारे जाते-जाते कितना कहकर गये थे कि हम शीघ्र ही वापिस आयेंगे।" ____ मैंने बीच में ही कहा - "उन बेचारों को क्या पता था कि वे अब कभी वापिस न आने को जा रहे हैं, सदा के लिए विदाई लेकर जा रहे हैं। पत्नी ने जिज्ञासा प्रगट की - "अब कैसी हालत है? पक्षाघात का असर कहाँ-कहाँ कितना हुआ है, चलते-फिरते तो हैं न? अपना नित्यकर्म करने के लिए पराधीन तो नहीं हो गये? ___ मैंने पत्र पढ़कर सुनाते हुए कहा – “पक्षाघात का प्रभाव तो संपूर्ण दाहिने अंग पर है, चलना-फिरना, उठना-बैठना तो पूरी तरह बंद है। बीमारी के कारण विवेकी की शारीरिक स्थिति बहुत खराब हो गई है। मलमूत्र विसर्जित करने में भी भारी कठिनाई होने लगी है। भोजन भी अपने हाथों से नहीं कर पाते । पानी पीने तक में पराधीनता हो गई है। और तो ठीक, मुँह की मक्खियाँ भी अब वे नहीं भगा सकते। विदाई की बेला/१६ पर, इतना सौभाग्य समझो कि मुँह, कान, आँख व मस्तिष्क पर अधिक असर नहीं आया है। इसकारण सोचने-विचारने, बोलने एवं देखने-सुनने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है।" ___ यह समाचार सुनाते हुए और विवेकी को देखने के लिए जाने की भूमिका बनाते हुए मैंने अपनी धर्मपत्नी से कहा - "धर्मप्रेमियों को जितना प्रेम अपने विषय-कषाय व स्वार्थ के साथी स्त्री-पुत्र व कुटुम्बपरिवार से होता है, और जितना प्रेम साधर्मीजनों से होता है, उससे भी कई गुना अधिक प्रेम धर्मायतनों से - देव-शास्त्र-गुरु तथा जिनबिम्ब, जिनालय व धर्मतीर्थों से होता है; तथा जितना प्रेम धर्मायतनों, धर्म के साधनों से होता है; उससे भी कई गुना अधिक प्रेम धर्म से - ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा से, शुद्धात्मा या कारण परमात्मा से होता है। यदि ऐसा हो तो ही उसका धर्मप्रेम सच्चा मानना चाहिए, अन्यथा उसमें सच्चा धर्मप्रेम नहीं है - ऐसा ही माना जायेगा।" इस बात को सुनकर पत्नी मेरी भावना को भाँप गई। वह समझ गई कि मैं लंबी-चौड़ी भूमिका क्यों बना रहा हूँ? अतः वह बड़े ही विनम्र भाव से सहानुभूति प्रगट करते हुए बोली - “आप विवेकी को संबोधनार्थ उनके घर अवश्य जाइए। ऐसे समय में नहीं जाओगे तो कब जाओगे? मैं भी आपके साथ चलूँगी; क्योंकि ऐसे संकट के समय अपने ठहरने, खानेपीने और आतिथ्य का भार उन पर डालना उचित नहीं है। मैं आपको तो संभालूँगी ही, यथासंभव विवेकी की सेवा टहल करने में भी सहयोग करूँगी। क्या पता उनके परिवार वाले कितना समय निकाल पाते होंगे? आखिर यही एक काम थोड़े ही है उनके सामने! और भी न जाने क्याक्या समस्यायें होंगी।" ___मैं उसकी इस समझदारी पर आश्चर्यचकित था। मेरी भावभंगिमा को देखकर वह पुनः बोली - "ऐसे क्या देख रहे हो? मैं ठीक ही तो कह रही हैं, ऐसे मौके पर मैं मजाक नहीं करती। चलो! उठो! तैयारी करो! (64)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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