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________________ ११० विदाई की बेला/१५ पर दोषारोपण करके उसे कोसा करती थी। वायुभूत भी क्रोधी प्रकृति का तो था ही, अभिमानी भी बहुत था। विवेक तो उसमें नाममात्र को भी नहीं था। भला वह भाभी के मिथ्या दोषारोपण को कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उसने भी ईंट का जवाब पत्थर से देने की ठान ली और एक दिन क्रोध से आग-बूबला होकर उसे नाना प्रकार से अपमानित करते हुए उसके मुँह पर लात दे मारी। अबला होने से वह भाभी उस समय तो कुछ भी प्रतिकार नहीं कर पायी, पर उसे क्रोध तो बहुत आया। उसने मन ही मन संकल्प किया कि 'मैं इस अपमान का बदला लेकर ही रहूँगी।' उसका वह क्रोध अंदर ही अंदर अन्तर्मन में पड़ा-पड़ा धीरे-धीरे बैर में बदल गया। संक्लेश परिणामों के साथ क-मरण करने के कारण वह भाभी का जीव नाना निकृष्ट योनियों में जन्म-मरण करता रहा। भली होनहारवश जब वायुभूत का जीव सेठपुत्र सुकुमाल के रूप में मनुष्य पर्याय में आया तब उसी समय वायुभूत की भाभी का जीव उसी जंगल में सियारनी की पर्याय में जा पहुँचा। सियारनी मांसाहारी पशु होने से स्वभावतः मांसाहारी तो थी ही, फिर मनुष्य का मांस तो पशुओं को और भी अधिक प्रिय होता है। जब सेठ पुत्र सुकुमाल मुनि बनकर जंगल के कांटों-कंकड़ों से भरे रास्ते में जा रहे थे तो उनके कोमल पावों में कंकड़ चुभने से खून बहने लगा। रास्ते में पड़े उस खून को चाटते-चाटते वह सियारनी अपने बच्चों सहित वहाँ जा पहुँची, जहाँ महामुनि सुकुमाल ध्यानस्थ हो गये थे। उन्हें देखते ही पूर्वभव के बैर के दृढ़ संस्कारवश उस सियारनी को उनके प्रति अनजाने ही द्वेष उमड़ आया और उसने निर्दयतापूर्वक धीरे-धीरे तीन दिन तक उन्हें नोच-नोच कर खाया, फिर भी मुनि सुकुमाल सुमेरु की तरह अडिग रहे और आत्मा का ध्यान करतेकरते समाधिमरणपूर्वक देह विसर्जित करके सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। विदाई की बेला/१५ १११ कहाँ तो महान तपस्वी, महान उपसर्गजयी, धैर्य के धनी, धीर-वीर महानमुनि सुकुमाल का परम उत्कृष्ट जीवन और कहाँ महाक्रोधी, महाकृतघ्नी, महामानी, अनपढ़ वायुभूत का महानिकृष्ट जीवन । एक ही जीव की भिन्न-भिन्न दो दशाओं में जमीन-आसमान जैसा कितना व कैसा महान अन्तर! पर यह कोई असंभव बात नहीं है। और भी ऐसे उदाहरण पुराणों में पाये जाते हैं। महावीर और मारीचि को ही देख लीजिए न! जो मारीचि की पर्याय में महा मिथ्यादृष्टि था, तीर्थंकरत्व का घोर विरोधी था, वही महावीर की पर्याय में आकर स्वयं साक्षात् धर्मतीर्थ प्रवर्तक तीर्थंकर बन गया. यह है परिणामों की विचित्रता। जीवों के परिणामों की इस विचित्रता के संबंध में कविवर भागचन्दजी ने ठीक ही कहा है - "जीवन के परिणमन की अति विचित्रता देखहू प्राणी। नित्य निगोद माँहि से कढिकर, नर पर्याय पाय सुखदानी।। समकित लहि अन्तर्मुहर्त में केवल पाय वरी शिवरानी।। कहाँ तो नित्यनिगोद की अत्यन्त मूर्छित दयनीय दशा और कहाँ मनुष्य पर्याय की उत्कृष्टता? उसमें भी सम्यग्दर्शन की जागृत दशा; न केवल सम्यग्दर्शन, बल्कि केवलज्ञान और मुक्ति दशा की प्राप्ति भी।" ऐसी स्थिति में यदि वायुभूत के जीव ने अपनी आत्मोन्नति करके महामुनि सुकुमाल जैसी परम पवित्र पर्याय प्राप्त कर ली तो उसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसलिए तो कहते हैं कि - जब समय आ जाता है तो सुलटते देर नहीं लगती। अतः वर्तमान पर्याय के परिणामों के कारण किसी को सर्वथा बुरा या भला मान लेना उचित नहीं है तथा स्वयं अपनी वर्तमान दशा को उन्नत या अवनत देखकर अभिमान या निराश होना भी योग्य नहीं है। परिस्थितियों के बनते बिगड़ते देर नहीं लगती। आज का पशु कल परमात्मा बन सकता है। अतः किसी का अनादर या उपेक्षा करना भी उचित नहीं है। (60)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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