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________________ १०६ विदाई की बेला/१५ कृपया आप अत्यन्त मंदस्वर में पठन-पाठन एवं उपदेश करें ताकि आपकी आवाज उसके कानों तक न पहुंचे। मुनिराज यशोभद्र को सुभद्रा के विचित्र पुत्रव्यामोह पर एवं संसारी प्राणियों की कारुणिक दशा पर मन ही मन हंसी भी आई और करुणाभाव के कारण दुःख भी हुआ। वे उसे कुछ आश्वासन दें अथवा समझायें - ऐसी स्थिति में नहीं थे; क्योंकि उन्हें अपने निमित्तज्ञान में स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा था कि अब सुकुमार की आयु अत्यल्प रह गई है। और उसे अल्पकाल में ही मेरे ही निमित्त से वैराग्य होनेवाला है तथा उसे आत्मसाधना का अपूर्व पुरुषार्थ करना है। साथ ही उसे अपने दुहरे व्यक्तित्व का परिचय देकर इतिहास में अपना नाम भी अमर करना है, पुराण पुरुष बनना है, अतः वे चुप रहे। महान आत्माओं के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि - 'वज्रादपि कठोरानि, मृदूनि कुसुमादपि' वे जहाँ पुष्प के समान कोमल होते हैं, वहीं वज्र के समान कठोर भी होते हैं। सुकुमाल की भी यही स्थिति थी। वे बाहर से जितने सुकुमार थे, अन्दर से उतने ही कठोर भी थे; जैसा कि उनके अंतिम जीवन से स्पष्ट हो चुका है। पर मोही प्राणियों की समझ में यह बात नहीं आ सकती; अतः यशोभद्र मुनिराज ने सुभद्रा से कुछ नहीं कहा। अपनी प्रार्थना के उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते जब सुभद्रा निराश हो गई तो उसका शंकालु मन और अधिक संशकित व खेद-खिन्न हो गया। घर आते ही उसने अपने पहरों की व्यवस्था और भी अधिक सुदृढ़ कर दी। __पर होनहार को कौन टाल सकता था? जब जो होना होता है, वह तो होकर ही रहता है। सारे समवाय या कारणकलाप वैसे ही मिलते चले जाते हैं। विदाई की बेला/१५ १०७ साधारण मनुष्य तो क्या, असीम शक्ति संपन्न इंद्र एवं अनंतबल के धनी जिनेन्द्र भी उसमें कुछ फेरफार नहीं कर सकते। शारीरिक दृष्टि से अत्यन्त सुकुमार होते हुए भी सेठ पुत्र सुकुमाल में मनोबल एवं आत्मबल अद्भुत था । जहाँ उन्हें बाल्यावस्था में सूर्य का प्रकाश नहीं सुहाता था, जो रत्नों की ज्योति में ही रहा करते थे, जिन्हें पाँवों में राई के दाने चुभते थे; वही मुनि अवस्था में उन्होंने जैसी - जो कठोर साधना की, उसकी इतिहास व पुराणों में कोई मिसाल नहीं मिलती। ___अपने पूर्वभव - वायुभूत की पर्याय में छोटे से वटबीज की तरह वैरभाव का ऐसा बीज बो दिया था, जो दिखने में भले छोटा था, पर उसका फल सुकुमाल को अपनी मुनिदशा में वटवृक्ष की भाँति बहुत बड़े उपसर्ग के रूप में भोगना पड़ा। ___ पुराणों से पता चलता है कि महामुनि सुकुमाल अपनी भूतपूर्ववायुभूत की पर्याय में यौवनावस्था तक अनपढ़ रहे । वे न केवल अनपढ़ थे, बल्कि स्वभाव से क्रोधी व कृतघ्नी भी थे। इनके एक भाई और थे उनका नाम था अग्निभूत । अग्निभूत बड़े थे और वायुभूत छोटे । संयोग से बचपन में दोनों ही अनपढ़ रह गये। यद्यपि इनके पिता राजपुरोहित थे और उनका राज्य में अच्छा सम्मान था तथा उत्तराधिकार में राजपुरोहित का पद उनके इन्हीं बेटों को मिलता, पर लाड़-प्यार में दोनों बालकों के अनपढ़ रह जाने से वह पद उन्हें नहीं मिल सका। इसकारण वे दोनों आजीविका से भ्रष्ट होकर मारे-मारे फिरने लगे। उनकी यह स्थिति देखकर उनकी माँ ने उन्हें अपने भाई के पास पढ़ने भेजा। मामा के पास पहुँचकर दोनों भाईयों ने उन्हें माँ का संदेश सुनाया और अपने आने का उद्देश्य बताया। मामा यशोभद्र ने एक क्षण विचार करके कहा - तुम्हारी माँ ने यह कहकर भेजा सो तो ठीक है, पर मेरी तो कोई सगी बहिन ही नहीं थी, तो (58)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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