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________________ १०० विदाई की बेला/१४ "समाधिधारक व्यक्तियों को किस प्रकार संबोधित किया जाये, जिससे परिणाम समाधिमय हो सकें? तथा वेदना से उनका चित्त विभक्त न हो उपयोग की एकाग्रता खण्डित न हो और पीड़ा चिन्तन में उपयोग न जाय।" विदाई की बेला/१४ भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना में भी इसी प्रकार भोजन का त्याग होता है। भोजन के त्याग की मुख्यता से इसे ही भक्तप्रत्याख्यान कहते हैं। इसका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष व जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। राग-द्वेष मोहादि भावों को कृश करना कषायसल्लेखना है। कषायसल्लेखना बिना काय सल्लेखना निरर्थक है। जो राग-द्वेष व विषयकषाय जीत सकेगा, उसी के समाधिमरण संभव है। आगम में मरण या समाधिमरण के उल्लेख अनेक अपेक्षाओं से हुए हैं। पाँच प्रकार के मरण की अपनी एक अपेक्षा है, इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार हैं :(१) पण्डित पण्डित मरण :- केवली भगवान के देह विसर्जन को पण्डित-पण्डित मरण कहते हैं। इस मरण के बाद जीव पुनः जन्म धारण नहीं करता। (२) पण्डित मरण :- यह मरण छठ गुणस्थानवर्ती मुनियों के होता है। एक बार ऐसा मरण होने पर दो-तीन भव में ही मुक्ति हो जाती है। (३) बाल पण्डित मरण :- यह मरण देशसंयमी के होता है। इस मरण के होने पर सोलहवें स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। (४) बाल मरण :- यह मरण चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के होता है। इस मरण से प्रायः स्वर्ग की प्राप्ति होती है। (५) बाल-बाल मरण :- यह मरण मिथ्यादृष्टि के होता है। यह मरण करने वाले अपनी लेश्या व कषाय के अनुसार चारों गतियों के पात्र हो सकते हैं। यद्यपि पाँचवे बाल-बाल मरण को छोड़कर उपर्युक्त चारों प्रकार के मरण समाधिपूर्वक ही होते हैं, पर स्वरूप की स्थिरता और परिणामों की विशुद्धता अपनी-अपनी योग्यतानुसार अलग-अलग होती है।" सदासुखी और विवेकी मेरे द्वारा इतनी विस्तृत जानकारी पाकर भारी प्रसन्न हुए। उन्होंने कृतज्ञता प्रगट करते हुए अंतिम प्रश्न पूछा - उनकी इस परोपकारी मंगलमय भावना का आदर करते हुए मैंने कहा - "यद्यपि दूसरों को समझाने की आपकी भावना उत्तम है, पर वस्तुतः दूसरों को समझाना सहज कार्य नहीं है; क्योंकि समझ बाहर से नहीं, अंदर से, अन्तर्मन से आती है। फिर भी करुणावश या धर्मस्नेहवश यदि कभी विकल्प आवे तो साधक की स्थिति देखकर जैसी परिस्थिति हो, जिन कारणों से वह स्वरूप से विचलित हो रहा हो, उनकी सार्थकता व निरर्थकता का ज्ञान कराया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ - कोई व्यक्ति असाध्य रोग और उससे उत्पन्न वेदना से पीड़ित हो, पीड़ाचिन्तन आर्तध्यान कर रहा हो, अथवा भूख-प्यास व इंद्रियों के विषयों की वांछा से खेद-खिन्न हो रहा हो, संक्लेश कर रहा हो या स्त्री-पुत्रादि के प्रति विशेष अनुरागी होकर इष्ट वियोगज आर्तध्यान कर रहा हो तो उससे कहें कि - ___ "हे भव्य आत्मन् ! जो दुःख तुम्हें अभी है इससे भी अनन्त गुणे दुःख तुम इस जगत में अनन्तबार जन्म-मरण करके भोग चुके हो, फिर तुम्हारे आत्मा का क्या बिगड़ा? कुछ भी तो नहीं बिगड़ा। अतः अब इस थोड़े से दुःख से क्या घबराना? देखो, तुम्हारा यह पीड़ाचिन्तन आर्तध्यान फिर नये दुःख के बीज बो रहा है। अतः इस पीड़ा पर से अपना ध्यान हटाकर आत्मा पर केन्द्रित करो, जिससे पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा तो होगी ही, नवीन कर्मों का बंध भी नहीं होगा। जो असाता कर्म उदय में आया है, उसे सहना तो पड़ेगा ही। यदि समतापूर्वक, साम्यभावों से सह लोगे तथा तत्त्वज्ञान के बल पर संक्लेश (55)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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