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________________ विदाई की बेला/१३ सात कुघातमयी मल मूरत, चाम लपेटी सोहै। अन्तर देखत या सम जग में और अपावन को है।। नवमल द्वारा बहे निश-वासर, नाम लिए घिन आवे । व्याधि-उपाधि अनेक जहँ-तहँ कौन सुधी सुख पावे।। राचन जोग स्वरूप न याकौ, विचरन जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजै, या में सार यही है ।। इस प्रकार वस्तुस्वरूप के बारम्बार चिन्तन-मनन करते रहने से ज्ञानी की श्रद्धा तो सुदृढ़ होती ही है, धीरे-धीरे आचरण भी श्रद्धा के ही अनुरूप होने लगता है। फलस्वरूप उसका मरण भी सहज ही समाधिमय हो जाता है। सदासुखी ने जिज्ञासा प्रगट की - "क्या सब सहज ही होता है? क्या मरणासन्न व्यक्ति को सल्लेखना धारण करने की जरूरत नहीं है? शास्त्रों में तो सल्लेखना लेने की बहुत विस्तार से चर्चा की गई है। क्या सल्लेखना और समाधिमरण कोई अलग-अलग है?" सदासुखी के एक साथ प्रश्न सुनकर मुझे मन ही मन प्रसन्नता हुई, पर उन प्रश्नों के सही समाधान के लिए विस्तृत चर्चा अपेक्षित थी, अतः मैंने कहा “भाई! तुम्हें इन प्रश्नों को समझने के लिए कम से कम एक दिन और रुकना पड़ेगा।" सदासुखी और विवेकी ने सहर्ष जाने का कार्यक्रम स्थगित करके दो दिन और रुकने का निश्चय कर लिया। सो ठीक ही है, जिसे सत्य को समझने की लगन लग जाती है, उसके लिए एक दिन रुकने की तो बात ही क्या है वह तो सर्वस्व समर्पण करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। "निर्भय व निर्लोभी हुए बिना सत्य कहा नहीं जा सकता और संपूर्ण समर्पण के बिना सत्य सुना व समझा नहीं जा सकता।" - इस तथ्य से सुपरिचित सदासुखी और विवेकी अगले दिन समय से पाँच मिनट पहले ही मेरे पास आ आ गये और अत्यन्त विनम्र भाव से पूछे गये प्रश्नों के उत्तर की चातक की भाँति प्रतीक्षा करने लगे। ___ समाधि के स्वरूप एवं उसके उपायों के संबंध में तो पर्याप्त चर्चा हो ही चुकी थी, पर आगम में आये सल्लेखना के स्वरूप की चर्चा अभी शेष थी, इस कारण इस संबंध में उनकी जिज्ञासा स्वाभाविक थी। मैंने सल्लेखना के संबंध में आगम के आधार पर उन्हें सरल शब्दों में समझाने का प्रयत्न किया। मैंने कहा - "सल्लेखना जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बना है - सत् + लेखना = सल्लेखना। जिसका अर्थ होता है सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को कृश करना। जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा या असाध्य रोग आदि कोई ऐसी अनिवार्य परिस्थिति उत्पन्न हो जावे, जिसके कारण धर्म की साधना संभव न रहे, तो वस्तुस्वरूप की समझ एवं आत्मा के आश्रय से कषायों को कृश करते हुए अनशनादि तप द्वारा काय को कृश करके धर्म रक्षार्थ मरण को वरण करने का नाम सल्लेखना है। इसे मृत्यु महोत्सव भी कहते हैं। धर्म आराधक उपर्युक्त परिस्थिति में प्रीतिपूर्वक प्रसन्नचित्त से बाह्य में शरीरादि संयोगों को एवं अंतरंग में राग-द्वेष आदि कषाय भावों को १ 'सम्यक्' काय + कषाय लेखना सल्लेखना "कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणा च कषायाणां तत्कारण हापन क्रमेण सम्यगल्लेखना सल्लेखना" - सर्वार्थसिद्धि १७/२२ (53)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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