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________________ विदाई की बेला/१२ ऐसा करने से उसे शाम से ही गहरी नींद आने लगी और वह कुछ ही दिनों में भैंस की भाँति ही सुस्त व आलसी हो गया। इसे किसी भी काम को बार-बार करने में आलस आने लगा। लेखक बनने का उत्साह तो ठंडा हो ही गया, नियमित स्वाध्याय व पठन-पाठन में भी आलसी हो गया। अब तो उसे एक-एक पत्र लिखने में भी आलस आने लगा। अब जब वह कुछ लिखता ही नहीं तो फाड़ता क्या? इस तरह उसका ‘फाडू' रोग ठीक हो गया।” ___फाडू रोग तो मुझे भी हुआ था, पर गनीमत यह रही, सौभाग्य यह रहा कि इसका उपचार कराने के लिए मैं किसी चिकित्सक के पास नहीं गया। अन्यथा शायद मेरी भी वही स्थिति होती, जो इस कहानी के नायक की हुई। ___मैंने तो अपना वही पुराना रास्ता अपनाया । जब तक एक-एक पंक्ति पर पूर्ण संतोष नहीं होता, मैं परिश्रम की परवाह किए बिना पूरे पन्ने के पन्ने फाड़ देता और पुनः लिखता। रात तो बहुत बीत गई, पर प्रयत्न करते-करते भाषण की एक अच्छी रूपरेखा तैयार हो गई और मैं सुख की नींद सो गया। मैं सुना करता था कि साहित्यकारों को एक-एक रचना में एक-एक पुत्र प्राप्ति जैसी सुखानुभूति होती है; पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे उस रात हुआ जब मेरे दीक्षांत भाषण की एक सुन्दर रूपरेखा तैयार हो गई थी। यद्यपि उस रात मैं बहुत देर से सो पाया था, पर अति उत्साह के कारण अगले दिन मैं समय पर उठ गया और जल्दी-जल्दी तैयार होकर समय के पूर्व ही वहाँ पहुँच गया, जहाँ दीक्षांत भाषण का कार्यक्रम रखा गया था। सभा की प्राथमिक औपचारिकता के उपरान्त अपना भाषण प्रारंभ करते हुए मैंने कहा - "विदाई के क्षण भी बड़े विचित्र होते हैं। चाहे वे बेटी की विदाई के क्षण हों या धर्मात्माओं की चिरविदाई के; दोनों ही स्थितियों में सभी को हर्ष-विषाद एवं सुख-दुःख की मिली-जुली ऐसी विचित्र अनुभूति होती है, जिसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता। एक ओर जहाँ विदाई के बाद चिरप्रतीक्षित दुर्लभ मनोरथों के साकार होने का हर्ष होता है, वहीं दूसरी ओर अपने संबंधियों से सदा-सदा के लिए बिछुड़ने का असीम दुःख भी होता है। वह स्थिति तो और भी विचित्र हो जाती है, जब चिरविदाई के समय एक ओर तो मृत्यु को महोत्सव जैसा मनाने की बात कही जाती है और दूसरी ओर अनन्तकाल के लिए अपने इष्टजनों के वियोग की असह्य मानसिक वेदना का पहाड़ सामने खड़ा दिखाई देता है। यद्यपि इन परिस्थितियों में मरणासन्न साधकों के मन में अन्तर्द्वन्द्व भी होता है पर वे उस अन्तर्द्वन्द्व को जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में किए गये तत्त्वाभ्यास (49)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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