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________________ विदाई की बेला/९ जिसने प्रीति चित्त से भगवान आत्मा की बात भी सुनी है, वह निश्चित ही भव्य है और निकट भविष्य में ही वह मोक्ष प्राप्त करेगा। अतः आप लोग मरण सुधारने की चिन्ता छोड़कर अपने शेष जीवन को सार्थक करने के लिए अपने समय और शक्ति का सदुपयोग करें। अपने उपयोग का लौकिक कार्यों के विकल्पों में और विकथाओं में दुरुपयोग न करें। अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी विषय-कषाय में बर्बाद न करें। विवेकी और सदासुखी मेरी बातें सुनकर उत्साहित तो हुए, पर उन्होंने सुन रखा था कि आयुकर्म का बंध तो वर्तमान आयु के त्रिभाग में हो जाता है अतः उनका मानना था कि - हमारी आयु के त्रिभाग तो कभी के निकल चुके होंगे; क्योंकि हम तो बासठ-बासठ बसंत देख चुके माजी! हमारा हमारा कल्याण नहीं आ विदाई की बेला/९ या विशुद्ध परिणामों में होता है। अतः यहाँ यह कहा जायेगा कि जैसी गति वैसी मति। जब तक आयुबंध नहीं हुआ तब तक ‘मति अनुसार गति' बंधती है, आयु बंध होने पर गति के अनुसार मति होती है। अतः यदि कुगति में जाना पसंद न हो तो मति को व्यवस्थित करना आवश्यक है। जब मैंने उन्हें इस बात से अवगत कराया तो वे घबराये हुए बोले - “भाईजी! हमारा तो पूरा जीवन ही संक्लेश परिणामों में बीता है, अब हमारा क्या होगा? हमारा कल्याण कैसे होगा? मैंने कहा - "आप घबरायें नहीं। आप लोगों को जो संन्यास और समाधि की भावना हुई, उससे ऐसा लगता है कि अभी आपको अशुभ आयु व खोटी गति का बंध नहीं हुआ है। जिसको अशुभ आयु और खोटी गति का बन्ध हो जाता है, उसकी मति (बुद्धि) भी गति के अनुसार कुमति ही होती है। कहा भी है - 'तादृशी जायते बुद्धि व्यवसाययोपि तादृशः । __सहायः स्तादृशः संति, यादृशी भवितव्यता ।। बुद्धि, व्यवसाय और सहायक आदि सभी कारण-कलाप एक होनहार का ही अनुसरण करते हैं । अर्थात् जैसी होनहार होती हैं, तदनुसार ही बुद्धि-विचार उत्पन्न होते हैं। व्यवसाय-उद्यम भी उसी प्रकार होने लगता है, सहायक निमित्तकारण भी सहजरूप से वैसे ही मिल जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि आप लोगों की होनहार भली है, आप निश्चित ही भव्य हैं, अन्यथा आप लोगों के ऐसे विशुद्ध परिणाम होते ही नहीं। आप लोगों के वर्तमान के विशुद्ध परिणामों से मुझे तो आपका भविष्य उज्ज्वल ही प्रतीत होता है। पद्मनन्दि पंचविंशतिका में आचार्य पद्मनन्दि ने स्पष्ट कहा है - "तत्प्रति प्रीति चित्तेन, येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं सः भवेत् भव्यो भावी निर्वाण भाजिनम् ।।२.२ ।। । वस्तुतः उन्होंने आयु के त्रिभाग के नियम को तो पूरी तरह समझा ही नहीं था, निमित्त-नैमित्तिक संबंध का भी उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं था। अतः मैंने उन्हें वर्तमान आयुकर्म के विभागों में होने वाले आगामी आयुकर्म के बंध की प्रक्रिया समझाते हुए बताया कि - "आगामी (बध्यमान्) आयुकर्म का बंध, जो वर्तमान (भुज्यमान) आयु के त्रिभाग में होता है, उस त्रिभाग का समय जीवन में अधिकतम आठ बार आता है। फिर भी यदि आयुकर्म का बंध न हो तो जीवन के अन्त समय में अर्थात् मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले तक भी होता है। विवेकी ने कहा, “बात कुछ कठिन हो गई, कुछ समझ में नहीं आया। आयुकर्म के त्रिभाग से आपका क्या तात्पर्य है? कोई उदाहरण देकर समझाइए न?" मैंने कहा - "हाँ सुनो! मान लो आपकी वर्तमान (भुज्यमान) आयु इक्यासी वर्ष है तो इक्यासी में तीन का भाग देकर उसमें से एक (तीसरा) भाग घटाने पर अर्थात् दो-तिहाई उम्र बीतने पर इक्यासी वर्ष का प्रथम (36)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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