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________________ विदाई की बेला/७ मैं मारता हूँ अन्य को, या मुझे मारें अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है, जिनवर कहें हे भव्यजन ।। निज आयुक्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब, आयु हर सकते नहीं? ।। निज आयुक्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब, जब आयु हर सकते नहीं? ।। मैं हूँ बचाता अन्य को, मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है, जिनवर कहे हे भव्यजन ।। सब आयु से जीवित रहें, यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किस तरह, जब आयु दे सकते नहीं?।। सब आयु से जीवित रहें, यह बात जिनवर ने कही। कैसे बचावें दे तुझे जब, आयु दे सकते नहीं? ।। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ, जगत में अन्य को। यह मान्यता अज्ञान है, क्यों ज्ञानियों को मान्य हो? । इसप्रकार सभी जीव अपने किए पुण्य-पाप का फल ही भोगते हैं। अन्य कोई किसी को सुखी-दुःखी नहीं कर सकता। यदि कोई अन्य किसी अन्य को सुखी-दुःखी कर सके तो स्वयं किए पुण्य-पाप का क्या होगा? अतः किसी अन्य के प्रति राग-द्वेष करना व्यर्थ है। ज्ञानी ऐसी श्रद्धा के बल से ही कषायें कृश करते हैं, मोह-राग-द्वेष का वमन करके समताभाव धारण करते हैं। तथा संसार, शरीर व भोगों की असारता का बारम्बार विचार करके सांसारिक सुखों से संन्यास ले लेते हैं, विरागी होकर मुनिधर्म साधन द्वारा स्वरूप की प्राप्ति करते हैं। यही जीवन जीने की कला है जिससे हम अब तक अनभिज्ञ रहे हैं। यदि सच्चा सुख प्राप्त करना हो तो हमें भी इन सबसे संन्यास लेकर पंचपरमेष्ठी और शुद्धात्मा की शरण में आना होगा। एतदर्थ पंडित जयचन्दजी छाबड़ा की निम्नांकित पंक्तियाँ बारंबार स्मरणीय हैं : विदाई की बेला/७ "शुद्धातम अरु पंचगुरु, जग में शरणा दोय। मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय ।।” महात्माजी के इस संदेश को सुनकर सेठ के नेत्र खुल गये और उन्होंने जगत से संन्यास लेने का दृढ़ संकल्प कर महात्माजी से संन्यास व समाधि के संबंध में विस्तार से समझने का निवेदन किया। महात्माजी ने कहा - "संसार, शरीर व भोगों को असार, क्षणिक एवं नाशवान तथा दुःखस्वरूप व दुःख का कारण मानकर उनसे विरक्त होना ही संन्यास है। तथा समता भाव को समाधि कहते हैं। शास्त्रीय शब्दों में कहें तो, कषायरहित शांत परिणामों का नाम ही समाधि है। तत्त्वों का मनन, मिथ्यात्व का वमन, कषायों का शमन, इंद्रियों का दमन, आत्मा में रमण - यही सब तो समाधि है, जो अब तुम्हें करनी है। समाधि के लिए सर्वप्रथम स्वरूप की समझ अत्यावश्यक है तथा यह स्वरूप की समझ पंचपरमेष्ठी की पहचानपूर्वक होती है और सच्चे देवशास्त्र-गुरु की यथार्थ श्रद्धा उसमें निमित्त होती है। एतदर्थ सर्वप्रथम तुम्हें देव-शास्त्र-गुरु की शरण में आना होगा, पंचपरमेष्ठी का स्वरूप समझना होगा। पुरुषों की अनगिनत कलाओं में दो कलायें ही प्रमुख हैं - एक जीविका दूसरी जीवोद्धार । पहली कला में तो तुम सफल रहे ही हो। दूसरी कला को भी तुम हासिल करो। संन्यासपूर्वक समाधि की साधना करके अपने शेष जीवन को भी सार्थक कर लो। इस तरह महात्माजी की प्रेरणा एवं प्रयासों से तथा स्वयं की भली होनहार से शेठ को सन्मार्ग मिल गया। ___ इस मार्मिक कहानी को जब सदासुखी के मुख से विवेकी ने सुना तो वह भी गद्गद हो गया और उसका विवेक भी जागृत हो गया। (31)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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