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________________ विदाई की बेला/६ वस्तुतः अरहंत या राम का नाम सत्य, शिव एवं सुन्दर है और इनके नाम लेने से सद्गति होती है; परन्तु अरहंत नाम सत्य है, राम-नाम सत्य है, सत्य बोलो गत्य है' यह वाक्य आजकल शवयात्रा से जुड़ गया है, शव यात्रा के अर्थ में रूढ़ हो गया है, मौत का प्रतीक बन गया है; अतः इसे मृत्यु के अवसर के सिवाय अन्यत्र कहीं भी बोलना अशुभ या अपशकुन का सूचक माना जाने लगा है। ___इस कारण जिस तरह शादी के अवसर पर अरहंत नाम सत्य है' एवं 'राम नाम सत्य है' नहीं बोला जा सकता, उसी तरह आज समाधि पाठ भी मृत्युकाल से जुड़ गया है, मरणासन्न दशा के साथ रूढ़ हो गया है इस कारण आज जगत की स्थिति यह है कि समाधिमरण का पाठ भी हर कोई व्यक्ति नहीं पढ़-सुन सकता। बीमारी में भी वयोवृद्ध मरणासन्न व्यक्तियों को ही समाधिमरण सुनने का सौभाग्य मिल पाता है। वह भी तब, जबकि उनकी पाँचों इन्द्रियाँ पूर्ण शिथिल हो जाती हैं, डॉक्टर जवाब दे देता है, व्यक्ति बेहोश हो जाता है, उसमें न सुनने की शक्ति बचती है, न सोचने-समझने की क्षमता । ऐसी स्थिति में सुनाने से लाभ भी क्या होने वाला है? कान में कोरा मंत्र देने से तो मुक्ति होगी नहीं। हमारी तो यही शुभकामना है कि किसी युवा या प्रौढ़ को मरण का प्रसंग ही न आये, पर मौत पर किसका वश चला है? कदाचित् किसी युवा की आयु पूर्ण हो गई तो उसे तो बिना समाधिमरण पाठ सुने ही मरना पड़ेगा, क्योंकि अंत तक भी युवाओं का मरना किसी को अभीष्ट नहीं होता। ____ वस्तुतः समाधि मृत्युमहोत्सव नहीं, जीवन जीने की कला है। इसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। समाधिपाठ को मात्र मृत्यु के अवसर पर पढ़ने की वस्तु नहीं मानना चाहिए और न उसे मृत्यु से ही जोड़ना चाहिए। यह जीवन भर चिंतन करने का विषय है, ताकि साधक का मृत्यु के समय भी ज्ञान-वैराग्य जागृत रहे और उसे मोह की मार मूर्छित न कर सके।" विदाई की बेला/६ मैंने कहा – “संयोग से जैसे-जैसे मैं दर्द भूलता गया, वैसे वैसे ही उस समय मेरी नींद गहराती गई और थोड़ी देर में गहरी नींद में सो गया। दर्द के कारण रात भर सो नहीं सका था, अतः नींद तो आनी ही थी सो आ गई और अड़ौस-पड़ोस में यह घटना उपहास का विषय बन गई। लोगों को ऐसा लगा मानों कोई मुर्दा जीवित हो उठा हो।" मेरे ही ऊपर घटित इस घटना को सुनकर सदासुखी और विवेकी के हृदय में समाधि का सही स्वरूप जानने की एवं जीवन में अपनाने की जिज्ञासा जागृत हो गई। उन्होंने संन्यास और समाधि लेने का संकल्प तो कर ही रखा था; क्योंकि वे अपने लौकिक जीवन से ऊब चुके थे और पारलौकिक जीवन को सुधारने की भावना रखते थे। अतः उन्हें तो मेरे रूप में अनायास ही ऐसा निमित्त मिल गया, जो शायद उन्हें चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता। पर रात अधिक हो जाने से उस दिन अधिक चर्चा न हो सकी। अगले दिन पुनः मिलने की आशा से वे अपने-अपने घर चले गए। (25)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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