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________________ विदाई की बेला/४ देना और जीवोद्धार को कुछ भी समय नहीं निकालना अच्छी बात नहीं है।” अस्तु! यह तो सिद्धान्त की बात है कोई माने या न माने, उसकी मर्जी । हमें इससे क्या? पर सदासुखी और विवेकी के बीच हुई बातचीत से तो स्पष्ट पता चलता था कि अब उनके सामने आजीविका की कोई समस्या नहीं रही। भले ही उन्हें आजीविका के लिए पहाड़ी इलाके में जाकर बसना पड़ा हो, पर अब वे वहाँ आजीविका से तो पूर्ण निश्चिंत हैं। पर्यटकों के आवागमन से उनका व्यापार-धंधा यहाँ अच्छा चल निकला है। यद्यपि उन्होंने अपने इस व्यवसाय में अधिक अक्ल नहीं लगाई थी और न ऐसा कोई भारी उद्यम ही किया था। सहज भाव से रोजी-रोटी चलती रहे, बस इसी विचार से छोटी-छोटी दुकानें लगा लीं थीं । भाग्योदय हुआ तो उन्हीं दुकानों में वे मालामाल हो गये और कल-कारखाने तक खुल गये । सो ठीक ही हैं : तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः । सहाया स्तादृशः सन्ति, यादृशी भवितव्यता ।। जैसी होनहार होती है, वैसी ही बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, उद्यम भी उसी दिशा की ओर होने लगता है, सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं। ऐसे विचार से विज्ञ व्यक्ति आजीविका की अधिक चिन्ता नहीं करते; पर ऐसी विज्ञता का अभी उनमें अभाव था। विदाई की बेला/४ संयोगों में न तो सुख है और न दुःख ही है। सांसारिक सुख-दुःख तो संयोगी भावों से होता है, संयोगों में इष्ट-अनिष्ट कल्पनाएँ करने से होता है। संयोगों में वस्तुतः सुख है ही कहाँ, वह तो सुखाभास है, दुःख का ही बदला हुआ रूप है। सच्चे सुख की यदि खोज की जाये तो वास्तविक सुख का सागर तो अपना भगवान आत्मा ही है, जिसकी सदासुखी की पहचान ही नहीं थी। विवेकी बाबाजी भी जीवनभर ठोकरें खाते-खाते बातें तो विवेकियों जैसी ही करने लगे थे, पर अभी उन्हें वास्तविक विवेक (तत्त्वज्ञान) की प्राप्ति नहीं हुई थी। इस कारण वे भी संपन्न होते हुए भी सुखी नहीं थे। जीवन भर पड़ौसी रहने से उन दोनों में परस्पर अच्छी मैत्री हो गई थी, वे दोनों ही वृद्ध भी हो चुके थे। अतः उनका धंधा-व्यापार और कल-कारखाने तो सब उनके लड़कों ने संभाल ही लिये थे, उनका शरीर भी अब इस योग्य नहीं रहा था कि वे व्यापार में बच्चों का कुछ भी सहयोग कर सकें। ___ एक दृष्टि से तो यह अच्छा ही हुआ कि अब उन्हें आत्मोद्धार करने का पूरा-पूरा सुअवसर प्राप्त हो गया था, पर कोई उस शेष जीवन का भी जीवोद्धार में उपयोग करे तब न? अधिकांश तो जीविका में ही अटके रहते हैं। यह भी पुण्य का उदय ही समझना चाहिए कि उन्हें कोई राजरोग नहीं था, पर बुढ़ापा स्वयं भी तो अपने आप में एक बीमारी है, जिससे कोई नहीं बच सकता। जन्म, जरा (बुढ़ापा) एवं मृत्यु - ये तीन ऐसे ध्रुव सत्य हैं कि जिनसे कोई इंकार नहीं कर सकता । इनका सामना तो समय-समय पर सबको करना ही पड़ता है। बस, हमें तो केवल यह देखना है कि ये तीनों अवस्थायें सुखद और सार्थक कैसे हो सकती हैं? बुढ़ापे की बीमारी से वे दोनों ग्रसित हो गये थे। शरीर क्षीण होने के 'पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख हो घर में माया' । इस लोकोक्ति के अनुसार यद्यपि सदासुखी बाहर से सुखी दिखाई देते थे, पर वस्तुतः अन्दर से वे अभी भी बहुत दुःखी थे, काफी परेशान थे। ___ जो भी सदासुखी की तरह संयोगों में सुख की खोज करेगा, उसे तो निराश होना ही पड़ेगा; क्योंकि संयोगों में सुख है ही कहाँ, जो उसे मिले। (
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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