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________________ विदाई की बेला/२ हैं सो प्रतिदिन नये-नये मँगा लेते हो। यदि मैं न मँगा सका तो....?" उसकी बात पूरी ही न हो पायी थी कि मैंने पुनः डाँटते हुए कहा - “क्यों बे नालायक! तो क्या तू हमें इन सकोरों में खिलायेगा?" उसने उसी भोलेपन से पुनः उत्तर दिया, "इसमें नालायकी की क्या बात है? यह तो अपने कुल की रीति है न? परिवार की परम्परा है न? यह परम्परा मुझे भी तो निभानी ही पड़ेगी न?' उसकी ये बातें सुनकर मैं अवाक् रह गया। कुछ ही क्षणों में माताजी एवं पिताजी का संपूर्ण जीवनक्रम मेरे स्मृति-पटल पर उतर आया। और ज्योंही मैंने स्वयं को उनके स्थान पर और अपने बेटे को अपने स्थान पर प्रतिस्थापित किया तो मेरे पैरों के तले से जमीन खिसकने लगी। ____ “जिसप्रकार के जीवन जीने की कल्पना ही इतनी भयानक हो, वैसा जीवन जीने की मजबूरी कैसी होती होगी ...?” इस विचार मात्र से मैं भय, आशंका और आत्मग्लानि के मिश्रित वेदना से काँप उठा। सदासुखी के इस आत्मालोचन में विवेकी को भी अपने जीवन का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा और उसकी समझ में आ गया कि उसकी वर्तमान विपरीत परिस्थितियों की जड़ें कहाँ हैं? ___ अचानक वे दोनों ही सदासुखी के मित्र उठे और अपनी-अपनी धुन में अत्यन्त आत्मग्लानि के भावों से भरे भारी मन व भारी कदमों से अपने-अपने घर की ओर चल पड़े। आज उनकी विदाई में चलते हैं फिर मिलेंगे' का उल्लास भरा अभिवादन दिखाई नहीं दिया। तीसरे दिन मैं उसी उपवन में उन वृद्ध व्यक्तियों से कुछ पहले पहुँच गया था। पिछले दो दिनों से उनकी बातें सुनते-सुनते मैं तो उनके जीवन, व्यक्तित्व एवं विचारों से बहुत कुछ परिचित हो गया था, पर वे मेरे बारे में अभी कुछ भी नहीं जानते थे। ____ हाँ, वे मुझे एकांत में अकेला बैठा देखकर सहज जिज्ञासावश कभीकभी मेरी ओर देख लिया करते थे, इस कारण मेरा चेहरा अब उन्हें अपरिचित नहीं रहा था। ___ यद्यपि मैंने अपनी ओर से विगत दो दिनों में कभी कोई ऐसा हावभाव व्यक्त नहीं होने दिया, जिसके कारण उनका ध्यान मेरी ओर आकर्षित होता; पर न जाने क्यों उस दिन उनके मन में अनायास ही मुझसे परिचय करने की भावना बलवती हो गई। ____ मैं अपनी आँखें बन्द किए अपनी धुन में बैठा-बैठा विचारों के ताने-बाने बुन रहा था कि वे दोनों वृद्ध अनायास मेरे पास आकर खड़े हो गये और मेरा ध्यान आकर्षित करते हुए बोले - “नमस्कार भाई जी!" उन्हें अचानक सामने खड़ा देख पहले तो मैं कुछ सकुचा-सा गया। फिर स्वयं को संभालते हुए मैंने उनके अभिवादन के उत्तर में कहा - "जय जिनेन्द्र जी' । फिर आवभगत करते हुए मैंने कहा आइए! आइए!! मैं भी आप लोगों से बात करने की सोच रहा था, पर आपकी बातों का तो कभी अंत ही नहीं आता, ओर-छोर ही नहीं होता। बातें पूरी होने की प्रतीक्षा में ही सारा समय पूरा हो जाता है। पिछले दो दिनों से मैं प्रतिदिन आपको यहाँ बैठा देख रहा हूँ और अनचाहे ही आप की दिलचस्प बातें सुन रहा हूँ। आप लोग बड़े ही (13)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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